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संबोधि
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अ. ६ : क्रिया-अक्रियावाद
आजीविका आदि में भी उसका ध्येय रहता है- धर्म - पूर्वक व्यवसाय करना । हिंसा, असत्य आदि का प्रयोग वह जीवन में कम से कम करना चाहेगा। अनात्मवादी की दृष्टि में धर्म कुछ नहीं है, इसलिए सत्कर्म में उसका विश्वास नहीं होता। वह शरीर की भूख को ही शांत करने में व्यस्त रहता है, जिसका परिणाम वर्तमान में किंचित् सुखद हो सकता है किन्तु वर्तमान और भविष्य दोनों ही उसके लिए दुःखद बनते हैं। ८. क्रियावादिषु चामीभ्य स्तर्कणीयो विपर्ययः ।
अप्येके गृहवासाः स्युः, केचित् सुलभबोधिकाः ॥
९. दर्शनश्रावकाः केचिद्, व्रतिनो नाम केचन । अगारमावसतोऽपि, धर्माराधनतत्पराः ॥
आत्मवादियों की स्थिति उनसे नितांत विपरीत होती है। कुछ लोग गृहवासी होते हुए भी सुलभबोधि-धर्मोन्मुख होते हैं।
कुछ दर्शन-श्रावक-सम्यक्दृष्टि होते हैं, कुछ व्रती होते हैं। वे घर में रहते हुए भी धर्म की आराधना करने में तत्पर रहते हैं।
॥ व्याख्या ॥
इस प्रकार उपासक की चार कक्षाएं होती हैं :
१. सुलभबोधि - धर्मप्रिय व्यक्ति । इनमें धर्म-कर्म संबंधी मान्यताओं का ज्ञान नहीं होता किन्तु धर्म के प्रति आकर्षण होता है। वे धर्म का आचरण नहीं भी करते फिर भी उन्हें धर्म प्रिय लगता है।
२. सम्यग्दुष्टि - जिनका दृष्टिकोण सम्यग् होता है और जो सत्यान्वेषण के लिए चल पड़े हैं उनको सम्यग्दृष्टि कहा जाता है। इसकी व्यावहारिक परिभाषा यह है कि जो जीव, अजीव आदि नौ तत्त्वों को जानते हैं वे सम्यग्दृष्टि होते हैं।
३. व्रती जो उपासक के बारह व्रतों का यथाशक्ति पालन करते हैं वैसे व्यक्ति ।
४. प्रतिमाधारी - प्रतिमा का अर्थ है विशेष अभिग्रह-प्रतिज्ञा । जो व्यक्ति उपासक की ग्यारह प्रतिमाओं का पालन करते हैं, वे प्रतिमाधारी कहलाते हैं।
गृहस्थ की ये चार कक्षाएं हैं। ये उत्तरोत्तर विकसित अवस्थायें हैं। उपासक पहले सुलभबोधि होता है। वह धर्म के संपर्क में आता है। कुछ जानता है और जब उसे दृढ निश्चय हो जाता है कि धर्म-कर्म, पुण्य-पाप, आत्मा आदि हैं, कर्म है, उनका फल है, तब वह सम्यग्दृष्टि की कक्षा आता है। अब उसका मिथ्यात्व छूट जाता हैं और उसमें सत्य को जानने की उत्कट इच्छा उत्पन्न होती है। सत्यान्वेषण के लिए वह चल पड़ता है। उसके मन में संयमित जीवन जीने की लालसा उत्पन्न होती है। गृह त्यागने में वह अपने आपको असमर्थ पाता है, तब वह अपनी शक्ति के अनुसार कुछेक व्रतों को स्वीकार करता है। धीरे-धीरे व्रत ग्रहण का विकास कर वह बारहव्रती श्रावक बन जाता है। वह तीसरी कक्षा में आ जाता है। अब उसका व्यवहार, वर्तन और आचरण बहुत संयमित और सीमित हो जाता है। उसका गमनागमन, उपभोग- परिभोग आदि सीमाबद्ध हो जातें हैं। उसकी आकांक्षाएं अल्प हो जाती हैं और वह सांसारिक प्रवृत्तियों से अपने आपको बहुत विलग किए चलता हैं। जब उसके आसक्ति की मात्रा अत्यंत क्षीण हो जाती है तब • वह चौथी कक्षा में प्रवेश करता है। वह ग्यारह प्रतिमाओं का वहनकर अपनी आत्मशक्ति को तोलता है। इन प्रतिमाओं के वहन काल में श्रमणभूत की-सी चर्या का पालन करता है, किन्तु अपने परिवार से उसका प्रेम विच्छिन्न नहीं होता, अतः वह श्रमण नहीं कहलाता।
१०. अणुव्रतानि गृह्णन्ति, गुणशिक्षाव्रतानि च । विशिष्टां साधनां कर्तुं, प्रतिमाः श्रावकोचिताः ॥
उपासक की ये चार कक्षाएं हैं। इनमें धर्म का पूर्ण विकास होता है। जब वह उपासक गृहत्याग कर मुनि बनना चाहता है तब उसे पांचवी कक्षा -मुनि की कक्षा में प्रवेश करना होता है।
वे पांच अणुव्रत, तीन गुणव्रत, चार शिक्षाव्रत तथा विशिष्ट साधना करने के लिए श्रावकोचित ग्यारह प्रतिमाओं को स्वीकार करते हैं।