SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 223
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आत्मा का दर्शन २०४ खण्ड-३ ५. निःशीलाः पापिकां वृत्तिं, कल्पयन्तः प्रवंचनाः। उत्कोचना विमर्यादा, मिथ्यादंडं प्रयुञ्जते॥ वे शील रहित होते हैं, पापपूर्ण आजीविका करते हैं, दूसरों को ठगते हैं, रिश्वत लेते हैं, मर्यादा-विहीन होते हैं और मिथ्यादंड का प्रयोग करते हैं-अनावश्यक हिंसा करते हैं। ६. क्रोधं मानञ्च मायाञ्च, लोभञ्च कलहं तथा। अभ्याख्यानञ्च पैशुन्यं, श्रयन्ते मोहसंवृताः॥ वे मोह से आच्छन्न होने के कारण क्रोध, मान, माया, लोभ, कलह, अभ्याख्यान-दोषारोपण और चुगली का आश्रय लेते हैं। ७. गर्भान्ते गर्भमायान्ति, लभन्ते जन्म जन्मनः। मृत्योः मृत्युञ्च गच्छन्ति, दुःखाद् दुःखं व्रजन्ति च॥ वे गर्भ के बाद गर्भ, जन्म के बाद जन्म, मुत्यु के बाद मृत्यु और दुःख के बाद दुःख को प्राप्त होते हैं। ॥ व्याख्या ॥ समस्त मानव जगत् को तीन भागों में विभक्त किया जा सकता है- १. आत्मवादी (आस्तिक), २. अनात्मवादी (नास्तिक) और ३. आत्मगवैषी या आत्मोपलब्ध। आत्मोपलब्ध व्यक्ति के लिए 'आत्मा है' यह मान्यता का विषय नहीं रहता। उसके लिए आत्मानुभव अन्य पदार्थों की भांति प्रत्यक्ष है। जो आत्म-खोजी हैं वे भी मानकर संतुष्ट नहीं होते। वे उसकी प्राप्ति के लिए कटिबद्ध होते हैं। आत्मा उनके लिए छुई-मुई की तरह कभी प्रत्यक्ष होती है और कभी अप्रत्यक्ष। जलराशि पर पड़ी सेवाल को हटाने पर आकाश की नीलिमा अपत्यक्ष नहीं रहती, लेकिन पुनः सेवाल के फैल जाने पर वह गायब हो जाती है। ठीक साधनाशील व्यक्ति के जीवन में यही क्रम चलता है, जब तक सर्वथा विजातीय अणुओं का निर्मूलन नहीं होता। जैसे ही वे हटते हैं, आत्मा का सूर्य अपनी प्रकाश-गोद में उसे आवेष्टित कर लेता है। __ आस्तिक सिर्फ आत्म-प्राप्त व्यक्ति की वाणी में आश्वस्त हो जाता है। वह कहता है-'आत्मा है' किन्तु स्वाद नहीं चखता। वह धर्म को अच्छा मानता है। धर्म के फल के प्रति आकर्षण होता है और धार्मिक विधि-विधानों का अनुसरण भी करता है। लेकिन धर्म के प्रत्यक्ष दर्शन की कठोरतम साधना पद्धति का अनुगमन नहीं करता और न वह इन्द्रियविषयों से भी परामख होता है। इन्द्रिय-विषय भी उसे अपनी ओर खींचते हैं और धर्म का आकर्षण भी। धार्मिक जीवन का अर्थ होता है-विषयों के प्रति सर्वथा अनाकर्षण। विषयों का संबंध-विच्छेद नहीं किन्तु आसक्ति का विच्छेद। धार्मिक व्यक्ति केवल विषयों से ही विमुख नहीं होता, अपितु कर्म-बंध के स्रोतों के प्रति भी उदासीन होता है। राग-द्वेष और कषाय-चतुष्टय भी उसके तनुतम होते चले जाते हैं। उसके जीवन में अनुकंपा, सहिष्णुता, सौहार्द, सत्यता, सरलता, संतोष, विनम्रता आदि गुण सहज उद्भावित होने लगते हैं। जहां जीवन में धर्म का अवतरण नहीं होता, वहां उपरोक्त स्थितियों का दर्शन नहीं होता। इससे स्पष्ट अनुमान किया जा सकता है कि धर्म का अभी अंतस्तल से स्पर्श नहीं हुआ है। फिर भी वह धर्म-विहीन नास्तिक व्यक्ति की भांति क्रूर नहीं होता। धर्म-अधर्म के फल के प्रति उसके मानस में आस्था होती है, लोक-भय होता है। नास्तिक के लिए आत्मा और धर्म का प्रश्न ही खड़ा नहीं होता। वह मानने और जानने-दोनों से दूर होता है। उसकी आस्था का केन्द्र केवल ऐहिक विषय होता है। अर्थ और काम-ये दो ही उसके जीवन के ध्येय होते हैं। वह इन्हीं की परिधि में जीता हैं और मरता है। ये कैसे संवर्द्धित हों, उसका जीवन इन्हीं के लिए है। इनके संरक्षण और संवर्द्धन में कौशल अर्जन करता है और इनके लिए कृत्य और अकृत्य की मर्यादा के अतिक्रमण में भी वह संकोच नहीं करता। ऐसे व्यक्ति धर्म की दृष्टि से तो अनुपादेय हैं ही किन्तु सामाजिक और राजनैतिक दृष्टि से भी कम गर्हणीय नहीं होते। उपरोक्त श्लोकों में उनकी जीवन-चर्या का ही प्रतिबिंब है। · आत्मा में विश्वास करने वाला व्यक्ति प्रत्येक आत्मा की स्वतंत्रता में विश्वास करता है। उसे सुख प्रिय है तो वह यह भी मानता है कि औरों को भी सुख प्रिय है। इसलिए वह अपने सुख के लिए दूसरों का सुख छीनने में क्रूर नहीं बन सकता।
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy