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________________ संबोधि २०३ अ.६:क्रिया-अक्रियावाद ॥ व्याख्या ॥ पूज्यपाद देवनंदी ने कहा है-'सम वही हो सकता है जो जगत् की चेष्टाओं को स्पंदन-रहित होकर देखता है, विकल्प और क्रिया के भोग से जो दूर रहता है।' यह आत्म-सुख में रमण करने की स्थिति है। स्पन्दन शरीर और शरीरजन्य धर्म है। उसे देखकर जो शांत रहता है वही आनंद का अनुभव कर सकता है। आत्म-दर्शन में वादों की परिसमाप्ति हो जाती है। वहां केवल एक आत्मवाद ही रहता है। अभेद और वितर्क मलिनदशा के परिणाम हैं। हाइड्रोजन और ऑक्सीजन के सम्मिश्रण से पानी बनता है। इसे आप चाहे जहां देख सकते हैं। आत्म-दर्शन की अनुभूति भी देश, क्षेत्र और काल की सीमाओं से बाधित नहीं होती। . विविध मान्यताओं का वर्गीकरण दो भागों में किया जा सकता है: क्रियावाद-आत्मवाद और अक्रियावाद-अनात्मवाद। आत्मवादी आत्मा को केन्द्र मानकर चलता है। वह आत्मा के साथ कर्म-विजातीय तत्त्व का योग देखता है। आत्मा उसके लिए स्वरूपतः शुद्ध और कर्म-बंधन से अशुद्ध भी है। कर्म है, कर्म-बंधन है तो उसका फल भी है। उसका इनमें विश्वास होता है। कर्म से होने वाली स्वर्ग और नरक गति भी उसे स्वीकार्य है। कर्म-मुक्ति से आत्मस्वातन्त्र्य-मोक्ष भी उसके लिए अस्वीकार्य नहीं है। . कर्म-मुक्ति का साधन जो धर्म है, उसमें भी उसकी पूर्ण आस्था होती है। बाहरी संबंध अवास्तविक हैं। वास्तविक संबंध आत्मा से आत्मा का है। आत्मा को देखने वाला आत्म-स्वार्थ के अतिरिक्त अन्य स्वार्थों से आत्मा का अहित नहीं करता। आत्महित ही उसकी दृष्टि में प्रधान होता है। . - अनात्मवादी की मान्यता उससे उल्टी होती है। शारीरिक सुख को वह प्रधानता देता है। इन्द्रिय-जगत् में ही वह अधिक जीता है। इसी का यहां निरूपण है। . ३. सुकृतानां दुष्कृतानां, निर्विशेष फलं खलु। अनात्मदर्शी लोग सुकृत और दुष्कृत के फल में अंतर नहीं ... मन्यन्ते विफलं कर्म, कल्याणं पापकं तथा॥ , मानते और कर्म को विफल मानते हैं-भले-बुरे कर्म का भला बुरा फल भी नहीं मानते। ॥ व्याख्या ॥ चार्वाक दर्शन के प्रणेता आचार्य वृहस्पति की मान्यता में यही तत्त्व है। वे कहते हैं-न आत्मा है, न मोक्ष है, न धर्म है, न अधर्म है, न पुण्य है, न पाप है और न उसका फल भी है। संसार के संबंध में वे वर्तमान जगत् को ही प्रमुखता देते हैं। खाओ, पीओ और आराम करो-इतना ही है जीवन का लक्ष्य उनकी दृष्टि में। पंचभूतों से आत्मा नाम का तत्त्व उत्पन्न होता है और पंचभूतों में ही वह विलीन हो जाता है। पंचभूतों के अतिरिक्त और कुछ नहीं है, इसलिए वर्तमान जीवन ही उनके लिए सब कुछ है। स्वर्ग, नरक, पुण्य, पाप आदि न होने से केवल वर्तमान सुख की उपलब्धि ही वास्तविक है। यदि पुण्य, पाप आदि की सत्ता वास्तविक है तो नास्तिकों का क्या होगा? उनका भविष्य कितना अंधकारमय और दुःखपूर्ण होगा! क्षणिक वासना-तृप्ति के लिए क्रूर होना समाज, परिवार और राष्ट्र के लिए भी हितकारक नहीं है। नास्तिकों की क्रूरता को देख आचार्य सोमदेव ने राजा के लिए कहा है कि उसे नास्तिक दर्शन का विद्वान - होना चाहिए। जो राजा उसे जानता है वह राष्ट्र के कष्टों का उन्मूलन कर सकता है। नेता यदि मृदु होता है तो उस पर अनेक व्यक्ति चढ़ आते हैं, जब तब उसे दबा देते हैं। अन्यायों को कुचलने के लिए बिना कठोरता के काम नहीं चलता.। गीता के सोलहवें अध्याय में जो आसुरी स्वभाव का वर्णन है, वह नास्तिकों का ही स्पष्ट चित्र प्रस्तुत करता है। १. प्रत्यायान्ति न जीवाश्च, न भोगः कर्मणां ध्रुवः। जीव मरकर वापस नहीं आते, फिर से जन्म धारण नहीं करते प्रत्यास्थातो महेच्छाः स्युः महारंभपरिग्रहाः॥ और किए हुए कर्मों को भोगना आवश्यक नहीं होता-इस आस्था से उनमें महत्त्वाकांक्षाएं पनपती हैं। वे महा-आरंभ करते हैं और परिग्रह का महान् संचय करते हैं।
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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