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क्रिया - अक्रियावाद
अहिंसा सत्कर्म है। उसकी आराधना वे ही कर सकते हैं जो पुनर्जन्म को मानते हैं, जिनका विश्वस है कि सत्कर्म का सत् फल होता है और असत्कर्म का असत् फल होता है। कुछ व्यक्ति सत्कर्म में विश्वास करते हैं और अल्प मात्रा में उसका आचरण भी करते हैं। कुछ सत्कर्म में विश्वास नहीं करते और आचरण भी नहीं करते। इसके आधार पर व्यक्ति के तीन रूप बनते हैं :
• धर्म की पूर्ण आराधना करने वाला मुनि-पूर्ण धार्मिक |
• धर्म की अपूर्ण आराधना करने वाला सद् गृहस्थ - अपूर्ण धार्मिक |
• धर्म की आराधना नहीं करने वाला - अधार्मिक |
इस अध्याय में तीनों ही व्यक्तियों के कर्म और कर्मफल की मीमांसा व्यवस्थित ढंग से की गई है।
१. पृथक् छन्दाः प्रजा अत्र, पृथग्वादं समाश्रिताः । क्रियां श्रद्दधते केचिद् अक्रियामपि केचन ॥
संसार में विभिन्न रुचि वाले लोग हैं। उनमें पृथक्-पृथक् वाद, जैसे- क्रियावाद - आत्मवाद और अक्रियावाद- अनात्मवाद आदि प्रचलित हैं। कुछ व्यक्ति आत्मा, कर्म आदि में श्रद्धा रखते हैं और कुछ व्यक्ति नहीं रखते।
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॥ व्याख्या ॥
संसार विविध वादों से भरा हैं। पुराने वाद नया रूप लेते हैं और नये पुराने बनते हैं। काल का यह क्रम अजस्र प्रवाहित रहता है। पुरानी मान्यता के वाद थे-क्रियावाद, अक्रियावाद, ज्ञानवाद और विनयवाद। इनकी अवान्तर शाखाएं सैंकड़ों रूपों में प्रसारित हुई थीं। आज भी अनेक वाद प्रचलित हैं।
वाद बौद्धिक व्यायाम है। तथ्यों की सचाई का परीक्षण तर्क से किया जाता है, जबकि तर्क स्वयं संदिग्ध होता है । वह सत्य के द्वार तक पहुंचने का सीधा माध्यम नहीं है। सीधा माध्यम हैं, तर्क-शून्य - निर्विकल्प होना । वाक् प्रपंच केवल पांडित्य मात्र है। शंकराचार्य का कथन है
२. हिंसासूतानि दुःखानि,
भयवैरकराणि च। पश्य' व्याकरणे शंका, पश्यन्त्यपश्यदर्शनाः ॥
१. पश्यति इति पश्यः - द्रष्टा ।
वाग्वैखरी शब्दझरी, शास्त्रव्याख्यानकौशलम् । वैदुष्यं विदुषां तद्वद्भुक्तये न तु मुक्तये ॥
वचन की विदग्धता, शब्द-सौन्दर्य और शास्त्र - व्याख्यान की कुशलता - ये विद्वानों की विद्वत्ता के भोग के लिए हैं, मोक्ष के लिए नहीं ।
'दुःख हिंसा से उत्पन्न होते हैं। उनसे भय और वैर बढता है, आत्म-द्रष्टा के इस निरूपण में वे ही लोग शंका करते हैं, जो साक्षात्दर्शी नहीं हैं।