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आत्मा का दर्शन
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खण्ड-३
२१. विधातुं गात्रकण्डूतिं, त्वया पाद उदञ्चितः।
स्थानं रिक्तं समालोक्य, शशकस्तत्र संस्थितः॥
तूने अपने शरीर को खुजलाने के लिए एक पांव को ऊंचा किया। तेरे उस पांव के स्थान को खाली देखकर एक खरगोश वहां आ बैठा।
२२. कृत्वा कण्डूयनं पादं, दधता भूतले पुनः।
शशको निम्नगोत्रऽलोकि, त्वया तत्त्वं विजानता॥
खुजलाने के बाद जब तू पांव नीचे रखने लगा तब तूने वहां पांव से खाली हुए स्थान में खरगोश को बैठा देखा। तू तत्त्व को .. जानता था।
२३. तदानुकम्पिना तत्र, न हतः स्यादसौ मया। इति चिन्तयता पादः, त्वया संधारितोऽन्तरा॥
(युग्मम्)
तेरे चित्त में अनुकंपा-अहिंसा का भाव जागा। खरगोश मेरे. पैर से कुचला न जाए'-यह सोच तूने पांव को बीच में ही थाम लिया।
२४.शुभेनाध्यवसायेन, लेश्यया च विशुद्धया।
संसारः स्वल्पतां नीतो, मनुष्यायुस्त्वयार्जितम्॥
शुभ अध्यवसाय' और विशुद्ध लेश्या (भाव) से तूने संसारभ्रमण-जन्म-मरण की संख्या को परिमित कर दिया और मनुष्य के आयुष्य का अर्जन किया।
२५. सार्द्धद्वयदिनेनाऽथ, दवः स्वयं शमं गतः।
निधूमं जातमाकाशं, अभया जन्तवोऽभवन्॥
ढाई दिन के बाद दावानल अपने आप शांत हुआ। आकाश निधूम हो गया और वे वन्य-पश निर्भय हो गए।
२६.स्वच्छन्दं गहने शान्ते, विजः पशवस्तदा।
पलायितः शशकोऽपि, रिक्तं स्थानं त्वयेक्षितम्॥
तब वन्य-पशु उस शांत जंगल में स्वतंत्रतापूर्वक घूमनेफिरने लगे। वह खरगोश भी वहां से चला गया। पीछे तूने वह स्थान खाली देखा।
२७. पादं न्यस्तुं पुनर्भूमौ, सार्द्धद्वयदिनान्तरम्।
स्तम्भीभूतं जडीभूतं, त्वया प्रयतितं तदा॥
ढाई दिन के पश्चात् तूने उस खंभे की तरह अकड़े हुए निष्क्रिय पांव को पनः भूमि पर रखने का प्रयत्न किया।
२८.स्थूलकायः क्षुधाक्षामः, जरसा जीर्णविग्रहः।
पादन्यासे न शक्तोऽभूः, भूतले पतितः स्वयम्॥
तेरा शरीर भारी-भरकम था। तू भूख से दुर्बल और बढापे से जर्जरित था। इसलिए तू पैर को फिर से नीचे रखने में समर्थ नहीं हो सका। तू लड़खड़ाकर भूमि पर गिर पड़ा।
२९.विपुला वेदनोदीर्णा, घोरा घोरतमोज्ज्वला।
सहित्वा समवृत्तिस्तां, तत्र यावद् दिनत्रयम्॥
उस समय तुझे विपुल, घोर, घोरतप और उज्ज्वल वेदना हुई। तीन दिन तक तूने उसे समभावपूर्वक सहन किया।
३०.आयुरन्ते पूरयित्वा, जातस्त्वं श्रेणिकाङ्गजः।
अहिंसा साधिता सत्त्वे, कष्टे च समता श्रिता॥
तूने जीवों के प्रति अहिंसा की साधना की और कष्ट में समभाव रखा। अंत में आयुष्य पूरा कर तू श्रेणिक राजा का पुत्र
हुआ।
१. चेतना की सूक्ष्म परिणति।