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________________ संबोधि १३३ अ.१: स्थिरीकरण ॥ व्याख्या ॥ . इस श्लोक में दो महत्त्वपूर्ण बातें दी गयी हैं-प्राणियों के प्रति अहिंसा का बर्ताव और कष्ट में समभाव। अहिंसक व्यक्ति के ये दो गुण सहज हैं। वह किसी भी प्राणी का उत्पीड़न नहीं करता, दुःख नहीं देता और न उन पर अनुशासन ही करता है। जिसके मन में आत्मौपम्य की भावना का विकास होता है, वही व्यक्ति दूसरों के उत्पीड़न आदि से बच सकता है। दूसरे को अपने तुल्य माने बिना अहिंसा का प्रयोग हो ही नहीं सकता। दसरी बात है-कष्टों में समभाव रहना। यह हर एक के लिए साध्य नहीं है। जो अहिंसक और अभय होता है, जो आत्मलीन होता है, जो कष्ट को साधना की कसौटी मानता है, वह समता का आचरण कर सकता है। जिसके मन में बन्द्रों-राग-द्वेष, मान-अपमान, सुख-दुःख के प्रति हर्ष और विषाद का भाव होता है, वह समता का आचरण नहीं - कर सकता। ३१.अवशा वेदयन्त्येके, कष्टमर्जितमात्मना। बिलपन्तो विषीदन्तः, समभावः सुदुर्लभः॥ कुछ व्यक्ति पहले कष्ट-कर्म का अर्जन करते हैं फिर उसे विवश होकर भुगतते हैं। उसके वेदन-काल में विलाप और विषाद करते हैं क्योंकि समभाव हर किसी के लिए सुलभ नहीं है। ३२.उदीर्णा वेदनां यश्च, सहते समभावतः। निर्जरा कुरुते काम, देहे. दुःखं महाफलम्॥ जो व्यक्ति कर्म के उदय से उत्पन्न वेदना समभाव से सहन करता है, उसके बहुत निर्जरा होती है क्योंकि शरीर में उत्पन्न कष्ट को सहन करना महान् फल का हेतु है। ॥ व्याख्या ॥ सुख और दुःख आत्मा की कर्म-जन्य अवस्थाएं हैं। ये वैभाविक हैं। शुद्ध आत्मा में ये नहीं होतीं। शरीर भी - विकृति है। सुख और दुःख देह में उत्पन्न होते हैं। सुख सदा प्रिय है, दुःख सदा अप्रिय। सुख में हर्ष होता है और दुःख में विषाद, यह विषमता है। राग और द्वेष असंतुलित अवस्था में होते हैं। ये आत्मा के लिए बंधन हैं। समत्व मुक्ति है, निर्जरा है, आत्मा की आंशिक उज्ज्वलता है। इसलिए इस पर बल दिया है कि शरीर में आने वाले सुख और दुःख दोनों को समभाव से सहन करो। यह महान् फल का हेतु है। ३३.असम्यक्त्वी तदा कष्टे, नाऽभवो वत्स! कातरः। सम्यक्त्वी संयमीदानी, क्लीवोऽभूः स्वल्पवेदने॥ • ३४. मुनीनां . कायसंस्पर्शप्रमिलानाशमात्रतः। ____ अधीरो मामुपेतोसि, सद्यो गन्तुं पुनर्गृहम्॥ वत्स! उस समय हाथी के भव में तू सम्यक्दृष्टि नहीं था, फिर भी कष्ट में कायर नहीं बना। इस समय तू सम्यक्दृष्टि और संयमी है फिर भी इतने थोड़े कष्ट में क्लीव-सत्त्वहीन बन गया? साधुओं के शरीर का स्पर्श होने से रात को तेरी नींद नष्ट हो गई। इतने मात्र से तू अधीर होकर घर लौट जाने के लिए सहसा मेरे पास आया है! तूने सोचा-मुक्ति का मार्ग सुदुश्चर है। उस पर चलने वाले को निरंतर नाना प्रकार के कष्ट सहन करने होते हैं। मैं उस पर चलने में समर्थ नहीं हूं। ३५.नाहं गन्तुं समर्थोस्मि, मुक्तिमार्ग सुदुश्चरम्। यत्र कष्टानि सह्यानि, नानारूपाणि सन्ततम्॥ ,३६.सर्वे स्वार्थवशा एते. मनयोऽन्यं न जानते। भीमः सदश्चरो घोरो. निर्ग्रन्थानां तपोविधिः॥ ये सब साधु स्वार्थी हैं, दूसरे की चिंता नहीं करते। निग्रंथों की तपस्या करने की विधि बड़ी भयंकर, सदश्चर और घोर है।
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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