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________________ आत्मा का दर्शन १३४ खण्ड-३ ३७. युक्तोऽयं किमभिप्रायः, मोहमूलं विजानतः? मोह के मूल को जानने वाले के लिए क्या ऐसा सोचना देहे मुग्धा जना लोके, नानाकष्टेषु शेरते॥ उचित है? क्या तू नहीं जानता कि शरीर में आसक्ति रखने वाले (त्रिभिर्विशेषकम्) लोग नाना प्रकार के कष्ट भोगते हैं? ३८.युक्तं नैतत् तवायुष्मन्! तत्त्वं वेत्सि हिताहितम। पूर्वजन्मस्थितिं स्मृत्वा, निश्चलं कुरु मानसम्॥ आयुष्मन् ! तेरे लिए ऐसा सोचना उचित नहीं है। क्या हित है और क्या अहित-इस तत्त्व को तू जानता है। तू पिछले जन्म की घटना को याद करके अपने मन को निश्चल बना। मेघः प्राह ३९.हन्त! हन्त! समर्थोऽयं, अर्थो यश्च त्वयोदितः। मदीयो मानसो भावो, बुद्धो बुद्धेन सर्वथा॥ मेघ बोला-भगवन् ! आपने जो कुछ कहा, वह बिलकुल . सही है। आपने मेरे मन के सारे भाव जान लिये। ४०.ईहापोहं मार्गणाञ्च, गवेषणाञ्च कुर्वता। तेन जातिस्मृतिर्लब्धा, पूर्वजन्म विलोकितम्॥ ईहा, अपोह, मार्गणा और गवेषणा करने से मेघ को पूर्वजन्म की स्मृति हई और उसने अपना पिछला जन्म देखा। ४१.त्वदीया देशना सत्या, दृष्टा पूर्वस्थितिर्मया। सन्देहानां विनोदाय, जिज्ञासामि च किञ्चन॥ मेघ बोला-भगवन्! आपका कथन सत्य है। मैंने पूर्वभव की घटनाएं जान लीं। मेरे मन में कुछ संदेह हैं। उन्हें दूर करने के लिए आपसे कुछ जानना चाहता हूं। : ॥ व्याख्या ॥ मेघ का मन आलोक से भर गया। उसके पूर्वजन्म उसकी आंखों के सामने नाचने लगे। वह विस्मित-सा देखने लगा। 'मैं कहां चला गया ? प्रभो! मैं जगकर भी सोने जा रहा था। आपने मुझे बोध देकर पुनः जागृत कर दिया। मेरे विषम मन में प्रसन्नता की लहर दौड़ चली। आप मार्ग-द्रष्टा हैं, जीवन-स्रष्टा और जीवन-निर्माता हैं।' 'अब मैं चाहता हूं तत्त्व-ज्ञान जिससे मेरा मन सदा संतुलित रहे, उतार-चढ़ाव की परेशानियों से उद्धेलित न हो। आप मेरी जिज्ञासा को शांत करें, मेरे संशय मिटाएं और मुझे अनंतशक्ति का साक्षात् कराएं।' संशय सत्य के निकट पहुंचने का द्वार है। लेकिन वह अज्ञान और अश्रद्धा से समन्वित नहीं होना चाहिए। 'न हि संशयमनारुह्य, नरो भद्राणि पश्यति' संशय पर आरूढ़ होने वाला व्यक्ति कल्याण को देख सकता है। गणधर गौतम के लिए 'जायसंसए, जायकोउहले' प्रयुक्त विशेषण इसी के द्योतक हैं। यह संशय ज्ञान की अनिर्णायकता का सूचक नहीं है। इसमें जिज्ञासा है। जहां जिज्ञासा है, वहां सत्य का दर्शन होता है। संदेह ज्ञान की अनिर्णायकता का सूचक है। संदेह होने पर व्यक्ति जो है उससे अन्यथा ही मानता है। जहां संदेह है वहां सत्य की उपलब्धि नहीं होती। संशय और संदेह में यही अंतर है। ४२.द्विगुणानीतसंवेगः, नीतः पूर्वभवस्मृतिम्। आनन्दाश्रुप्रपूर्णास्यः . हर्षप्रफुल्लमानसः॥ भगवान् ने मेघ को पूर्वजन्म की स्मृति दिलाकर उसके संवेग-मोक्षाभिलाषा को द्विगुणित कर दिया। मेघकुमार का मुख आनन्दाश्रुओं से आप्लावित हो गया। उसका मन हर्षोत्फुल्ल हो गया।
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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