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संबोधि
अ.१ : स्थिरीकरण
॥ व्याख्या ॥ जातिस्मृति-ज्ञान का अर्थ है-अपने पूर्वजन्मों का ज्ञान। यहां 'जाति' शब्द का अर्थ जन्म है। यह जैन दर्शन द्वारा सम्मत पांच ज्ञानों के अंतर्गत मतिज्ञान में समाविष्ट होता है। यह प्रत्येक प्राणी को नहीं होता। जो व्यक्ति मन को अत्यंत एकाग्र कर वस्तु की तह तक पहुंचता है, उसे ही यह प्राप्त होता है। सर्वप्रथम किसी एक दृश्य, घटना, व्यक्ति या वस्तु को देखकर दर्शक के मन में ईहा उत्पन्न होती है। उसका मन आंदोलित हो उठता है कि यह क्या है ? क्यों है ? कैसे है? मेरा इससे क्या संबंध है? आदि आदि तर्क उसके मन में उत्पन्न होते हैं और वह एक-एक कर सबको समाहित करता हुआ और गहराई में जाता है। अब वह अपोह-निर्णय की स्थिति पर पहुंचता है। फिर वह मार्गणा और गवेषणा करता है-उसी विषय की अंतिम गहराई तक पहुंचने का प्रयत्न करता है। उसके तर्क प्रबल होते जाते हैं और जब वह उस वस्तु में अत्यंत एकाग्र बन जाता है, तब उसे पूर्वजन्म का ज्ञान प्राप्त होता है और उस जन्म की सारी घटनाएं एक-एक कर सामने आने लगती हैं। जैन दर्शन में इसे जातिस्मृति-ज्ञान कहा जाता है। इस ज्ञान के बल से व्यक्ति अपने नौ पूर्वजन्मों को जान जाता है। ____जाति-स्मरण के और भी अनेक कारण हैं-मन और बुद्धि की निर्मलता, शास्त्र-बोध, धार्मिक विचार, ऋजुता, पूर्वजन्म में संसेवित विषयों का श्रवण और दर्शन, स्वप्न, आश्चर्य और तत्सदृश अनुमान आदि। मैं कौन हूं? कहां से आया हूं? आदि सूत्रों के मनन और ध्यान से भी जाति-स्मरण की प्राप्ति होती है। ध्यान की गहराई में जब व्यक्ति मननपूर्वक पीछे लौटता है तो स्वयं के पूर्वजन्म को देख लेता है।
१५.मेरुप्रभाऽभिदो हस्ती, त्वमासीः पूर्वजन्मनि।
विन्ध्यस्योपत्यकाचारी, विहारी स्वेच्छया बने॥
मेघ! तू पूर्वजन्म में मेरुप्रभ' नाम का हाथी था। तू विन्ध्य पर्वत की तलहटी के वन में स्वच्छन्दता से विहार करता था।
१६.व्यधा भयाद् वनवढेः, मण्डलं योजनप्रमम्। उस समय तू समनस्क था। तुझे पूर्वजन्म की स्मृति हुई। तूने । लब्धपूर्वानुभूतिस्त्वं, दीर्घकालिकसंज्ञितः॥ . दावानल से बचने के लिए चार कोस का स्थल बनाया।
१७. घासा उत्पाटिताः सर्वे, लता वृक्षाश्च गुल्मकाः। ... अकारीभैः सप्तशतैः, स्थलं हस्ततलोपमम्॥
तूने सात सौ हाथियों का सहयोग पाकर सब घास, लता, पेड़ और पौधे उखाड़ डाले और उस स्थल को हथेली के तल जैसा साफ बना दिया।
१८.एकदा वह्निरुद्भूत, आरण्या पशवस्तदा।
निर्वैराः प्राविशंस्तत्र, हिंस्रास्तदितरे तथा॥
एक बार वहां दावानल सुलगा। उस समय जंगल के हिंस और अहिंस्र'-सभी पशु आपस में वैर भूलकर उस स्थल में घुस आए।
१९, यथैकस्मिन् बिले शान्ता, निवसन्ति पिपीलिकाः। . अवात्सुः सकलास्तत्र, तथा वर्भयद्रुताः॥
जैसे एक ही बिल में चींटियां शांतभाव से रहती हैं, वैसे ही दावानल से डरे हुए पशु शांतरूप से उस स्थल में रहने लगे।
२०.मण्डलं स्वल्पकालेन, जातं जन्तुसमाकुलम्।
वितस्तिमात्रमप्यासीत. न स्थानं रिक्तमद्भुतम्॥
थोडे समय में वह स्थल वन्य पशुओं से खचाखच भर गया। यह आश्चर्य था कि वहां वितस्ति जितना भी स्थान खाली नहीं रहा।
३. हिरण आदि शांत पशु।.
१. दीर्घकालिकसंज्ञी-समनस्क, मन वाला। २. खूखार जंगली जानवर।