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आत्मा का दर्शन
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खण्ड-३
॥ व्याख्या ॥ मेघ के लिए प्रव्रज्या का पथ बिलकुल नया था। उसकी दृष्टि अभी तक बाहर से पूर्णतया हटी नहीं थी। बाह्य । असुविधाएं खड़ी होते ही वह विचलित हो उठा। 'दुःख-सुख का कारण मैं स्वयं हूं, और कोई नहीं' यह शाश्वत स्वर स्मृति से ओझल हो चला। दूसरों की उपेक्षा उसे खलने लगी।
८. चिरं प्रतीक्षितो रश्मिः खेरुदयमासदत्।
महावीरस्य सान्निध्यमभजत् सोऽपि चञ्चलः॥
चिर प्रतीक्षित सूर्य की पहली किरण प्रकट हुई। वह अस्थिर . विचारों को लेकर भगवान् महावीर के पास पहुंचा।
९. विधाय वन्दनां नम्रः, विदधत् पर्युपासनाम्।
विनयावनतस्तस्थौ, विवक्षुरपि मौनभाक्॥
वह विनयावनत हो भगवान् को वंदना कर उनकी पर्युपासना में बैठ गया। वह बोलना चाहता था, फिर भी संकोचवश मौन रहा।
१०.कोमलं भगवान् प्राह, मेघ! वैराग्यवानपि।
इयता स्वल्पकष्टेन, कातरस्त्वमियानभूः॥
भगवान् ने कोमल स्वर में कहा-मेघ! तू विरक्त होते हुए भी इतने थोड़े से कष्ट से इतना अधीर हो गया?
११.पश्य स्तिमितया दृष्ट्या,
कष्टं तत्पौर्वदेहिकम्। असम्यक्त्वदशायाञ्च,
वत्स! सोढं त्वया हि यत्॥
वत्स! तू अपने मन को एकाग्र बना और स्थिर-शांत दृष्टि से अपने पूर्वजन्म के कष्ट को देख। उस समय तू सम्यक्-दृष्टि नहीं था, फिर भी तूने अपार कष्ट सहा था।
॥ व्याख्या ॥ असम्यक्त्व-दशा ऐसी है जिस में शरीर और चेतना की भेद-बुद्धि अभिव्यक्त नहीं होती।
'मैं शरीर हूं' यह अनंत जन्मों का गहरा संस्कार है। प्राणी इससे जकड़ा हुआ है। जब तक व्यक्ति इस संस्कार से मुक्त नहीं होता तब तक सत्य का दर्शन कठिन है। 'मैं शरीर नहीं, आत्मा हूं'- इसकी अनुभूति से उस संस्कार की नामशेषता स्वतः ही हो जाती है या इस नए संस्कार का निर्माण कर पुराने संस्कार की व्यर्थता का बोध कर लिया जाता है।
मेघः प्राह
१२. कथं मयाऽथ किं कष्टं, स्वीकृतं ब्रूहि तत् प्रभो!
न स्मरामि न जानामीत्यस्मि बोर्बु समुत्सुकः॥
मेघ बोला-प्रभो! मैंने क्या कष्ट सहा और कैसे सहा? वह न मुझे याद है और न मैं उसे जानता ही हं। प्रभो! मैं उसे जानने को उत्सुक हूं। आप मुझे बताएं।
भगवान् प्राह
१३.भगवान् प्राह सत्योधं, घटना पौवदहिकी। भगवान् ने कहा-वत्स! तू सच कहता है। जाति-स्मृति के
जातिस्मृति विना वत्स!बोधुं शक्या न जन्तुभिः॥ बिना कोई भी प्राणी पूर्वजन्म की घटना जान नहीं सकता।
१४. ईहापोहं तथैकाग्रयं, विना सा नैव जायते।
संस्काराः सञ्चिता गूढाः,प्रादुःस्युर्यत् प्रयत्नतः॥
ईहा, अपोह और मन की एकाग्रता के बिना जाति-स्मृति ज्ञान उत्पन्न नहीं होता। जो संस्कार गहरे में संचित होते हैं, वे गहन प्रयत्न से ही प्रकट होते हैं।