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________________ संबोधि १२९ अ. १ : स्थिरीकरण चरन् ग्राममनुग्रामम् एक गांव से दूसरे गांव की ओर विहार करते हुए - यह साधु जीवन की चर्या का प्रतीक है। मुनि पादचारी और अनियतवासी होते हैं। वे वर्षाकाल में चार मास तक एक स्थान में रहते हैं और शेष आठ महीनों में सदा विहार रहते हैं। राजगृह - यह मगध देश की राजधानी थी। इसकी गणना दस प्रमुख राजधानियों में की जाती थी । वर्तमान बिहार में स्थित राजगिर नाम से प्रसिद्ध स्थान प्राचीन काल का राजगृह है। यह भगवान् महावीर का प्रमुख विहार-स्थल था। यहां भगवान् ने चौदह चतुर्मास बिताए थे। एक बार भगवान् महावीर अपने श्वेत संघ के साथ ग्रामानुग्राम विहार करते हुए यहां आए। ४. नानासंतापसंतप्ताः, तमाजग्मुर्जना भूयः तापोन्मूलनतत्पराः । सुचिरां शांतिमिच्छवः ॥ ॥ व्याख्या ॥ दुःख के तीन रूप हैं : शारीरिक दुःख, मानसिक दुःख और आध्यात्मिक दुःख । शारीरिक और मानसिक दुःखों से कोई भी व्यक्ति अपरिचित नहीं है। जीवन के साथ ये गहरे संयुक्त हैं। मन शरीर का सूक्ष्म तत्त्व है। उसकी रुग्णता शरीर पर उतरती है। अधिकांश बीमारियां मानसिक होती हैं, ऐसा आधुनिक मनो-विश्लेषक स्वीकार करते हैं। मन की स्वस्थता अत्यंत अपेक्षित है। मन में जैसे ही बीमारी का भाव उठता है, शरीर उसे तत्काल स्वीकार कर लेता है। किन्तु साधक के लिए शरीर और मन ही सब कुछ नहीं है। वह और भीतर गहराई में उतरकर उसके कारणों की खोज करता है तब उसे दिखाई देता है कि दुःखों का कारण है-कार्मण शरीर जो आत्मा के साथ अनादिकालीन है। क्रोध, घृणा, ईर्ष्या, राग, द्वेष, मोह, लोभ आदि समस्त वृत्तियों का वह मूल- केन्द्र है। साधक उसे पकड़ला है और उससे मुक्त होने की दिशा में प्रयत्नशील होता है। भगवान् कुशल चिकित्सक थे। उनकी दृष्टि में शारीरिक और मानसिक दुःख की जड़ आध्यात्मिक दुःख था । वे चाहते थे • दुःख का मूलोच्छेद करना। उनके मार्गदर्शन से लाखों व्यक्ति दुःख से मुक्त हुए । आध्यात्मिक दुःख के उन्मूलन से शारीरिक और मानसिक दुःखों का भी उन्मूलन हुआ। वे मुक्त बने। इसलिए भगवान् जहां जाते, वहीं लोगों का तांता बंध जाता। राजगृह जनता भी दुःख - मुक्ति के लिए भगवान् के चरणों में उपस्थित हुई। श्रेणिकस्यात्मजो मेघो, भव्यात्माल्परजोमलः । श्रुत्वा भगवतो भाषां, विरक्तो दीक्षितः क्रमात् ॥ ६. कठोरो भूतलस्पर्शः, मध्येमार्ग शयानस्य, जो विभिन्न प्रकार के शारीरिक, मानसिक और भावात्मक संतापों से संतप्त थे, उनका उन्मूलन करना चाहते थे, चिरशांति के इच्छुक थे, वे मनुष्य बडी संख्या में भगवान् के पास आए। स्थानं निर्ग्रन्थसंकुलम् । विक्षेपं निन्यतुर्मनः ॥ ७. त्रियामा शतयामाऽभूत्, नानासंकल्पशालिनः । निस्पृहत्वं मुनीनां तं, प्रतिक्षणमपीडयत् ॥ महाराज श्रेणिक का पुत्र 'मेघ' भगवान् के पास आया। उसके कर्म और आश्रव स्वल्प थे। वह भव्य (मोक्षगामी) था। उसने भगवान् की वाणी सुनी, विरक्त हुआ और अपने माता-पिता की स्वीकृति पाकर दीक्षित हो गया। पहली रात की घटना है। तीन बातों ने उसके मन को चंचल बना दिया- पहली बात - भूमि का स्पर्श कठोर था । दूसरी बात उस स्थान में बहुत बड़ी संख्या में निर्ग्रथ थे। तीसरी बात-वह मार्ग के बीच में सो रहा था। आते-जाते हुए निग्रंथों के स्पर्श से उसकी नींद में बाधा पड़ रही थी। उसके मन में भांति-भांति के संकल्प उत्पन्न होने लगे। उसके लिए वह त्रियामा - तीन प्रहर की रात शतयामा-सौ प्रहर जितनी हो गई। विशेषतः साधुओं का निस्पृह भाव उसे प्रतिक्षण अखरने लगा।
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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