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प्रायोगिक दर्शन
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अ.१: समत्व ताहे सो बिले तोंडं छोणं एवं ठिओ, माऽहं रुट्ठो वह अपने मुंह को बिल में डालकर बैठ गया। 'मैं समाणो लोग मारेहं।
रुष्ट होकर लोगों को न मारूं'-इस भावना से उसने ऐसा
किया। सामी तत्थ अणुकंपणट्ठाए अच्छति। तं सामी भगवान वहीं खड़े रहे। महावीर को खड़े देख चरवाहे दतॄण गोवालगवच्छवालगा अल्लियंति। रुक्खे. उनके निकट आए। वे वृक्षों की ओट लेकर सर्प पर पत्थर हिं आवरेत्ता अप्पाणं पाहाणे खिवंति, ण चलंतित्ति फेंकने लगे। सर्प हिला-डुला नहीं। वे उसके और निकट अल्लीणा, रुद्धेहिं घटितो तहवि ण फंदति। तेहिं आए। छेड़-छाड़ की। फिर भी उसमें स्पंदन नहीं हुआ। लोगस्स सिट्ठ।
उन्होंने गांव के लोगों को इसकी सूचना दी। चंडकौशिक
के उपशांत होने की बात सुन लोग वहां आए।' ताहे लोगो आगंतुं सामिं वंदित्ता तंपि सप्पं वंदति सर्वप्रथम महावीर की वंदना की। फिर उस सर्प की महं च करेति। अन्नाओ य घयविक्किणियातो तं वन्दना की और उत्सव मनाया। अहिरिणियों ने सप्पं घतेण मक्खंति, फरुसो त्ति। सो पिपीलियाहिं चंडकौशिक के शरीर को रूक्ष समझ उसे घी से चुपडा। गहितो। तं वेयणं सम्म अहियासेति। अद्धमासस्स घी की गंध पा चींटियां उसके शरीर पर चढ़ गईं। काटने कालगतो, सहस्सारे उववन्नो।
लगीं। उसने उस वेदना को समभाव से सहा। पन्द्रह दिनों का अनशन सम्पन्न कर वह सहस्रार-कल्प (आठवें
देवलोक) में उत्पन्न हुआ।
समत्व : मदपरिहार २२.जो परिभवई परं जणं,
जो गोत्र आदि की हीनता के कारण दूसरे की संसारे परिवत्तई महं। - अदु इंखिणिया उ पाविया,
होता रहता है। वह अवहेलना पाप को उत्पन्न करने वाली इइ संखाय मुणी ण मज्जई॥ या पतन की ओर ले जाने वाली है-यह जानकर मुनि मद
न करे।
२३.जे यावि अणायगे सिया,
जे वि य पेसगपेसगे सिया। इद मोणपयं उवठिए,
णो लज्जे समयं सया चरे॥
एक सर्वोच्च अधिपति हो और दूसरा उसके सेवक का सेवक हो। सेवक पूर्व प्रव्रजित हो और अधिपति बाद में। वह अपने पूर्व प्रव्रजित सेवक को वन्दन करने में लज्जा का अनुभव न करे। वह सदा समता का आचरण करे।
२४.जे यावि अप्पं वसुमं ति मंता,
जो अपने आपको संयमी और ज्ञानी मानकर परीक्षा, ___ संखाय वायं अपरिच्छ कुज्जा। किए बिना आत्मोत्कर्ष दिखाता है-मैं सबसे बड़ा तपस्वी तवेण वाहं अहिए ति मंता,
. हूं, ऐसा मानकर दूसरे लोगों को प्रतिबिंब जैसा देखता है। अण्णं जणं पस्सति बिंबभूतं॥ २५.एगंत कूडेण तु से पलेइ,
वह एकांत माया के द्वारा संसार में भ्रमण करता है। न विज्जई मोणपदंसि गोते। मुनि-पद में गोत्र (उच्चत्वाभिमान) नहीं होता। जो सम्मान . जे माणणठेण विउक्कसेज्जा,
के लिए संयम अथवा अन्य किसी प्रकार का उत्कर्ष वसुमण्णतरेण अबुज्झमाणे। दिखाता है, वह परमार्थ को नहीं जानता।