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________________ आत्मा का दर्शन खण्ड-४ मुनि हरिकेशबल २६.सोवागकुलसंभूओ गुणुत्तरधरो मुणी। हरिएसबलो नाम आसि भिक्खू जिइंदिओ॥ मणगुत्तो वयगुत्तो कायगुत्तो जिइंदिओ। भिक्खट्ठा बंभइज्जम्मि जन्नवाडं उवदिओ॥ चांडाल कुल में उत्पन्न, ज्ञान आदि उत्तम गुणों को धारण करने वाला, धर्म-अधर्म का मनन करने वाला हरिकेशबल नामक जितेन्द्रिय भिक्षु था। ___ वह मन, वचन और काया से गुप्त और जितेन्द्रिय था। वह भिक्षा लेने के लिए यज्ञ मंडप में गया। वहां ब्राह्मण यज्ञ कर रहे थे। ___ वह तप से कृश हो गया था। उसके उपधि और उपकरण प्रान्त-जीर्ण और मलिन थे। उसे आते देख वे अनार्य हंसे। - जाति मद से मत्त, हिंसक, अजितेन्द्रिय, अब्रह्मचारी और अज्ञानी पुरुषों ने परस्पर इस प्रकार कहा-' तं पासिऊणमेज्जंतं तवेण परिसोसियं। पंतोवहिउवगरणं उवहसंति अणारिया। जाईमयपडिथद्धा हिंसगा अजिइंदिया। अबंभचारिणो बाला इमं वयणमब्बवी॥ कयरे तुम इय अदंसणिज्जे ओ अदर्शनीय मूर्ति! तुम कौन हो? किस आशा से काए व आसा इहमागओसि? यहां आए हो? अधनंगे तुम पांशुपिशाच (चुडेल) से लग ओमचेलगा पंसुपिसायभूया रहे हो। जाओ, आंखों से परे चले जाओ, यहां क्यों खड़े गच्छक्खलाहि किमिहं ठिओसि? हो? जक्खो तहिं तिंदुयरुक्खवासी ___ उस समय महामुनि हरिकेशबल की अनुकम्पा करने अणुकंपओ तस्स महामुणिस्स। ___ वाला तिन्दुक (आबनूस) वृक्ष का वासी यक्ष अपने शरीर पच्छायइत्ता नियगं सरीरं का गोपन कर मुनि के शरीर में प्रविष्ट हो इस प्रकार ___ इमाई वयणाइमुदाहरित्था॥ बोलासमणो अहं संजओ बंभयारी मैं श्रमण हूं, संयमी हूं, ब्रह्मचारी हूं, धन, पचनविरओ धणपयणपरिग्गहाओ। पाचन और परिग्रह से विरत हूं। यह भिक्षा का काल है। परप्पवित्तस्स उ भिक्खकाले मैं सहज निष्पन्न भोजन पाने के लिए यहां आया हूं। अन्नस्स अट्ठा इहमागओ मि॥ वियरिज्जइ खज्जइ भुज्जई य आपके यहां बहुत सारा भोजन दिया जा रहा है, अन्नं पभूयं भवयाणमेयं। खाया जा रहा है और भोगा जा रहा है। मैं भिक्षा-जीवी हूं। जाणाहि मे जायणजीविणु त्ति यह आपको ज्ञात होना चाहिए। अच्छा ही है-कुछ बचा सेसावसेसं लभऊ तवस्सी॥ भोजन इस तपस्वी को मिल जाए। उवक्खडं भोयण माहणाणं सोमदेव-यहां जो भोजन बना है, वह केवल ब्राह्मणों अत्तठ्यिं सिद्धमिहेगपक्खं। के लिए ही बना है। वह एक पाक्षिक है-अब्राह्मण को नऊ वयं एरिसमन्नपाणं अदेय है। ऐसा अन्न-पान हम तुम्हें नहीं देंगे, फिर यहां दाहामु तुझं किमिहं ठिओसि? क्यों खड़े हो ? थलेसु बीयाइ ववंति कासगा यक्ष-अच्छी उपज की आशा से किसान जैसे स्थल तहेव निन्नेसु य आससाए। (ऊंचीभूमि) में बीज बोते हैं, वैसे ही नींची भूमि में बोते एयाए सद्धाए दलाह मज्झं हैं। इसी श्रद्धा से मुझे दान दो। पुण्य की आराधना करो। आराहए पुण्णमिणं ख खेत्तं॥ यह क्षेत्र है। बीज खाली नहीं जाएगा।
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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