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संबोधि
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अ. १५ : गृहिधर्मचर्या ५७. अविमुक्ततया मत्या, लोभवेद्योदयेन च। परिग्रहसंज्ञा चार कारणों से उत्पन्न होती है-१. तस्यार्थस्योपयोगेन, संग्रहेच्छा प्रजायते॥ अविमुक्तता-निर्लोभता न होना। २. परिग्रह की बातें सुनना और
धन आदि को देखना। ३. लोभ-वेदनीय कर्म का उदय। ४. परिग्रह का सतत चिंतन करना।
॥ व्याख्या ॥ 'जैन आगम में दो शब्द व्यवहृत होते हैं-संज्ञोपयुक्त और नो-संज्ञोपयुक्त। चेतना दो प्रकार की है-संज्ञोपयुक्त चेतना और नो-संज्ञोपयुक्त चेतना। जिसमें संज्ञा होती है वह संज्ञोपयुक्त चेतना है और जिसकी संज्ञा समाप्त हो जाती है वह नो-संज्ञोपयुक्त चेतना है। वीतराग नो-संज्ञोपयुक्त होते हैं। उनके उपयोग में, चेतना में कोई संज्ञा नहीं होती। वह संज्ञातीत चेतना होती है। 'संज्ञातीत' चेतना का अर्थ है-विशुद्ध चेतना, केवल चेतना। जिसके साथ संज्ञा का मिश्रण होता है, जो चेतना संज्ञा से प्रभावित होती है, जो चेतना संवेदनात्मक होती है वह संज्ञोपयुक्त चेतना कहलाती है। संज्ञाएं दस है-१. आहार संज्ञा २. भय संज्ञा ३. मैथुन संज्ञा ४. परिग्रह संज्ञा ५. क्रोध संज्ञा ६. मान संज्ञा ७. माया संज्ञा ८. लोभ संज्ञा ९. लोक संज्ञा १०. ओघ संज्ञा।
" हमारी साधना का एकमात्र उद्देश्य है-चेतना में से इन सारी संज्ञाओं को निकाल देना अर्थात् वीतराग बन जाना। यही उद्देश्य है हमारी अध्यात्म साधना का। चेतना के साथ जो संवेदन जुड़ा हुआ है, संज्ञा जुड़ी हुई है, उसको समाप्त कर देना, यह हमारा स्पष्ट लक्ष्य है। इसमें न कोई चमत्कारिक शक्ति प्राप्त करने का उद्देश्य है और न कोई और। केवल अपनी चेतना का संशोधन, परिमार्जन या परिष्कार करना है। जब व्यक्ति की चेतना परिमार्जित और परिष्कृत होती है तब विकास प्रारंभ हो जाता है। क्या हम आहार नहीं करें? क्या आहार संज्ञा को समाप्त करने का यही अर्थ है ? नहीं। शरीर के रहते हुए ऐसा संभव नहीं है कि हम आहार न करें। आहार किए बिना साधना नहीं हो सकती। साधना के लिए यदि शरीर जरूरी है तो शरीर के लिए आहार जरूरी है। आहार को नहीं छोड़ा जा सकता किन्तु आहार के प्रति होने वाली आसक्ति या वासना को छोड़ा जा सकता है। ५८.कारुण्येन भयेनापि,
दान दस प्रकार का होता है-१. अनुकंपा दान-किसी व्यक्ति संग्रहेणानुकम्पया। की दीनावस्था से द्रवित होकर उसके भरण-पोषण के लिए दिया लज्जया चापि गर्वेण,
जाने वाला दान। २. संग्रह-दान-कष्ट में सहायता देने के लिए दान अधर्मस्य च पोषकम्॥ देना। ३. भय-दान-भय से दान देना। ४. कारुण्य-दान-शोक के
प्रसंग में दान देना। ५. लज्जा-दान-लज्जा से दान देना। ६. गर्व५९.धर्मस्य पोषकं चापि,
दान-यश-गान सुनकर एवं बराबरी की भावना से दान देना। ७. कृतमितिधिया भवेत्। अधर्म-दान-हिंसा आदि पांच आसव-द्वार सेवन के लिए दान देना। करिष्यतीति बुझ्यापि,
८. धर्म-दान-प्राणी मात्र को अभय, संयमी को विशुद्ध भिक्षा, दानं दशविधं भवेत॥
किसी को ज्ञान, सम्यक्त्व और चारित्र की प्राप्ति करवाना। ९. (युग्मम्)
करिष्यति-दान-लाभ के बदले की भावना से दान देना। १०.कृत
दान-किये हुए उपकार को याद कर दान देना।
॥ व्याख्या ॥ दान शब्द का अर्थ है-देना, छोड़ना, विसर्जन करना। दान को चार प्रकार के धर्मों में एक धर्म कहा है। मनुष्य की प्रत्येक प्रवृत्ति के पीछे एक भाव रहता है। प्रवृत्ति मुख्य नहीं होती, भाव मुख्य होता है। समान्यतया मनुष्य प्रत्येक क्रिया के पूर्व-यह क्यों करनी चाहिए? क्या फल है ? इसे जान लेना चाहेगा। फलाकांक्षा का त्याग साधारण बात नहीं। गीता का सार है-त्याग, फलाकांक्षा छोड देना। 'राबिया' एक सफी साधिका थी। वह एक हाथ में मशाल और एक हाथ मैं की बाल्टी लेकर भागी जा रही थी। लोगों ने पूछा-आज क्या मामला है ? 'राबिया' ने कहा-स्वर्ग को जलाने और नरक