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________________ आत्मा का दर्शन ३७० खण्ड-३ को डुबोने जा रही हूं। लोगों ने पूछा- किसलिए ? कहा- तुम्हारे धर्म के मध्य में ये दो महान् व्यवधान हैं। नरक का भय और स्वर्ग का प्रलोभन, व्यक्ति इन दोनों से मुक्त हो कर ही शुद्ध, सत्य धर्म का स्पर्श कर सकता है। दान के पीछे जो मानसिक भाव-दशा होती है, उसी को आधार मानकर ये भेद किए गए हैं। कामना से मुक्त होने के बाद जो प्रवृत्ति होती हैं, वह वास्तविक प्रवृत्ति होती है उसमें कोई आकांक्षा प्रत्याशा नहीं रहती। दान के साथ व्यक्ति को सीखना है- फलाकांक्षा और प्रत्याशा से मुक्त होने का पाठ । सहज कर्त्तव्य बुद्धि से कार्य करना एक सही कला है। इस कला में जो निष्णात होता है, वह फिर दुःखी नहीं होता । प्राप्ति का मोह बड़ा जटिल होता है। प्रलोभन देकर आदमी से कुछ भी कराया जा सकता है। धर्म के नाम पर या धर्म होगा- बस इतना सुनना चाहिए, मनुष्य का मन द्रवित हो जाता है। लोभ का एक प्रकार नहीं है। वह जैसे धन का होता है वैसे स्वर्ग का भी होता है। दान के सभी प्रकारों से अवबुद्ध होकर व्यक्ति अपनी बुद्धि को भ्रमित न करे और यह भी न भूले कि जीवन का ध्येय है- समस्त आशंसा से मुक्त होना। अपने को केवल एक निमित्त समझना है । फलाकांक्षा और प्रत्याशा की भावना से मुक्त होने पर स्वयं को यह अनुभव होगा कि जो कुछ कर रहा हूं वह कैसा है? स्वभाव की उपलब्धि वस्तुतः सबसे बड़ा दान है, जिसमें पर का विसर्जन स्वतः निहित है स्व के अतिरिक्त फिर पकड़ या प्राप्ति का कोई प्रश्न ही नहीं रहता । ६०. धर्मो दशविधः प्रोक्तो मया मेघ विजानता । तत्र श्रुतञ्च चारित्रं, मोक्षधर्मो व्यवस्थितः ॥ मेघ! मैंने दस प्रकार का धर्म कहा है- १. ग्राम- धर्म - गांव की व्यवस्था - आचार- परम्परा । २. नगर- धर्म - नगर की व्यवस्था - आचार-परंपरा। ३. राष्ट्र-धर्म-राष्ट्र की व्यवस्थाआचार-परंपरा ४. पाषण्ड-धर्म-विविध संप्रदायों द्वारा सम्मत आचार-व्यवस्था। ५. कुल-धर्म- कुल का आचार। ६. गणधर्म - गणराज्य की आचार मर्यादा ७ संघ धर्म संघ गण समूह की सामाचारी - आचार - मर्यादा । ८, ९. श्रुत-धर्म और चारित्र-धर्म-आत्म उत्थान के हेतुभूत धर्म, मोक्ष के साधक धर्म । १०. अस्तिकाय धर्म पंचास्तिकाय का स्वभाव । - || व्याख्या || 'चरण नयणे कर मारग जोवतां भूल्यो सकल संसार । जेणे नयणे करि मारग जोइए नयन ते दिव्य विचार ॥" आनंदघन जी ने कहा-चर्म चक्षुओं से देखते हुए व्यक्ति मार्ग को नहीं देख सकते । मार्ग को देखने के लिए दिव्यनेत्र, अंतः चक्षु चाहिए। धर्म की अनुभूति भी अंतर्चक्षु से होती है, बाहर की आंखें धर्म को देख नहीं सकतीं। धर्म शब्द अनेकार्थक है। वस्तु के स्वभाव अर्थ में प्रयुक्त होते हुए भी वह अपने में अन्य अर्थों को भी समाहित रखता है। भ्रांति का या स्पष्टता के कारण नहीं होती। वह होती है अस्पष्टता तथा अनेकार्थता के कारण। इसलिए सत्य को देखने के लिए साधारण आंखें पर्याप्त नहीं होतीं। दश विध धर्म में यह अनेकता स्पष्ट परिलक्षित होती है स्वभाव, व्यवस्था, रीति-रिवाज या परंपरा आदि धर्म के अनेक अर्थ हैं। साधक को इन सबका विवेक कर स्वधर्म (आत्म-स्वभाव) में प्रवृत्त होना चाहिए। आत्म- धर्म सम्यग् ज्ञान और सम्यग् चारित्र रूप है। प्रस्तुत श्लोक में आठवां नौवां भेद आत्मधर्म है, शेष व्यवहार धर्म है। प्रक्रिया या नियम आत्म-बोध को उजागर करे, अज्ञान का विध्वंश करे, वही धर्म है। धर्म से आत्मा आवृत नहीं होती । जो धर्म आत्मा को अनावृत न करे यह वस्तुतः धर्म नहीं होता। धर्म स्वयं को जानने की प्रक्रिया है 'कन्फ्यूशियस' ने कहा'अज्ञानी दूसरों को जानने की कोशिश करता है और ज्ञानी स्वयं की खोज में लगा रहता है।' महावीर का समग्र बल आत्मा को जागृत करने में है। इस लिए यह स्पष्ट विवेक दिया है और कहा है-आत्म-स्वभाव के अतिरिक्त कोई धर्म नहीं है। इति आचार्यमहाप्रज्ञविरचिते संबोधिप्रकरणे गृहीधर्मचर्यानामा पञ्चदशोऽध्यायः । ..
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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