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________________ आत्मा का दर्शन ६८४ खण्ड-५ २४७. जह जह सुयमोगाइ, जैसे-जैसे मुनि अतिशयरस के अतिरेक से युक्त अइसय रसपसर-संजुयमपुव्वं। अपूर्वश्रुत का अवगाहन करता है, वैसे-वैसे नित-नूतन तह तह पल्हाइ मुणी, वैराग्य-युक्त श्रद्धा से आह्लादित होता है। __ नव-नव-संवेग-सद्धाओ॥ २४८. सूई जहा ससुत्ता, न नस्सई कयवरम्मि पडिआ वि। जीवो वि तह ससुत्तो, न नस्सइ गओ वि संसारे॥ जैसे धागा पिरोई हुई सूई कचरे में गिर जाने पर भी खोती नहीं है, वैसे ही ससूत्र अर्थात् शास्त्रज्ञान युक्त जीव संसार में रहता हुआ भी नष्ट नहीं होता। २४९. सम्मत्तरयण-भट्ठा, जाणंता बहुविहाइं सत्थाई। आराहणा-विरहिया, भमंति तत्थेव तत्थेव॥ सम्यक्त्व रूपी रत्न से शून्य अनेक प्रकार के शास्त्रों के ज्ञाता व्यक्ति भी आराधना-विहीन होने से संसारउन-उन जन्म-स्थानों में भ्रमण करते रहते हैं। ' २५०. परमाणुमित्तयं पिहु, रायादीणं तु विज्जदे जस्स। ण वि सो जाणदि अप्पाणयं, तु सव्वागमधरो वि॥ २५१. अप्पाणमयाणंतो,अणप्पयं चावि सो अयाणंतो। कह होदि सम्मदिट्ठी, जीवाजीवे अयाणंतो॥ (युग्मम्) जिस व्यक्ति में परमाणु भर भी रागादि भाव विद्यमान है, वह समस्त आगम का ज्ञाता होते हुए भी आत्मा को नहीं जानता। जो आत्मा को नहीं जानता और अनात्मा को भी नहीं जानता, आत्मा और अनात्मा दोनों को नहीं जानता, वह सम्यग्दृष्टि कैसे होगा? २५२. जेण तच्चं विबुज्झज्ज, जेण चित्तं णिरुज्झदि। जेण अत्ता विसुज्झेज्जतं णाणं जिण-सासणे॥ जिससे तत्व का ज्ञान होता है, जिससे चित्त स्थिर (शांत) होता है, तथा आत्मा विशुद्ध होती है, जिनशासन में वही ज्ञान है। २५३. जेण रागा विरज्जेज्ज, जेण सेएसु रज्जदि। जेण मित्ती पभावेज्ज, तं णाणं जिणसासणे॥ जिससे मनुष्य राग से विरक्त होता है, जिससे श्रेय में अनुरक्त होता है, और जिससे मैत्री भाव प्रभावित होता है, उसी को जिनशासन में ज्ञान कहा गया है। २५४. जो पस्सदि अप्पाणं, अबद्धपुढं अणन्नमविसेसं। अपदेस-सुत्त-मज्झं, पस्सदि जिण-सासणं सव्वं॥ जो आत्मा को अबद्धस्पृष्ट (देह और कर्म से न बद्ध और न स्पृष्ट), अनन्य (अचेतन से भिन्न), अविशेष (भेद रहित), तथा आदि-मध्य और अंतविहीन (निर्विकल्प) देखता है, वह समग्र जिनशासन को देखता है। २५५. जो अप्पाणं जाणदि, असुइ-सरीरादु तच्चदो भिन्नम्। जाणग-रूव-सरूवं, सो सत्थं जाणदे सव्वं॥ जो आत्मा को इस अपवित्र शरीर से तत्त्वतः भिन्न तथा ज्ञायक-भावरूप जानता है, वह समस्त शास्त्रों को जानता है।
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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