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________________ तं २५६. सुद्धं तु वियाणंतो, सुद्धं चेवप्पयं लहइ जीवो। जाणतो दु असुद्धं, असुद्धमेवप्पयं लहइ ॥ २५७. जे अज्झत्थं जाणइ, से बहिया जाणइ । जे बहिया जाणइ, से अज्झत्थं जाणइ ॥ २५८. जे एगं जाणइ, से सव्वं जे सव्वं जाणइ, से एगं व्यवहार चारित्र २५९. एदम्हि रदो णिच्च, संतुट्ठो होहि णिच्चमेदम्हि । एदेण होहि तित्तो, होहिदि तुह उत्तमं सोक्खं ॥ २६०. जो जाणदि अरहंतं, दव्वत्त-गुणत्त- पज्जयत्तेहिं । सो जादि अप्पाणं, मोहो खलु जदि तस्स लयं ॥ २६२. ववहार-णय चरित्ते, णिच्छय-णय-चारित्ते, २६१. लहूणं णिहिं एक्को,तस्स फलं अणुहवेइ सुजणत्ते। तह णाणी णाण- णिहिं, भुंजेइ चइत्तु परतत्तिं ॥ २६३. असुहादो विणिवित्ती, जाणइ । जाणइ ॥ ववहार-णयस्स होदि तवचरणं । तवचरणं होदि णिच्छयदो ॥ वद-समिदि-गुत्ति- रूवं, ६८५ हे पवित्तीय जाण चारितं । २६४. सुय-नाणम्मि वि जीवो, ववहार-या दु जिण भणियं ॥ जो तव -संजम - मइए, वट्टतो सो न पाउणति मोक्खं । अ. २ : मोक्षमार्ग जो जीव आत्मा को शुद्ध जानता है वह शुद्ध आत्मा को प्राप्त करता है और जो आत्मा को अशुद्ध अर्थात् देह आदि युक्त जानता है, वह अशुद्ध आत्मा को ही प्राप्त होता है। जो अध्यात्म को जानता है, वह बाह्य (भौतिक) को जानता है। जो बाह्य को जानता है, वह अध्यात्म को जानता है। जोगे न चएइ वोढुं जे || १. तेरह प्रकार के चारित्र का कथन आगे यथास्थान किया गया है। जो एक को जानता है, वह सबको जानता है। जो सबको जानता है वह एक को जानता है। तू इस आत्मा में सदा लीन रह । इसीमें सदा संतुष्ट रह। इसी से तृप्त हो। इसीसे तुझे उत्तम सुख प्राप्त होगा । जो अर्हत् (शुद्ध आत्मा) को द्रव्य-गुण- पर्याय की अपेक्षा से (पूर्णरूपेण) जानता है, वही आत्मा को जानता है । उसका मोह निश्चय ही विलीन हो जाता है। जैसे कोई व्यक्ति निधि को पाकर उसका उपभोग स्वजनों के बीच करता है, वैसे ही ज्ञानी ज्ञान-निधि का उपभोग पर भावों से विलग होकर स्व में ही करता है। व्यवहार चारित्र व्यवहार-नय के चारित्र में व्यवहार-नय का तपश्चरण होता है। निश्चय-नय के चारित्र में निश्चय नय का तपश्चरण होता है। अशुभ से निवृत्ति और शुभ में प्रवृत्ति व्यवहार चारित्र है, जो पांच व्रत, पांच समिति व तीन गुप्ति के रूप में अर्हतों द्वारा प्ररूपित है। श्रुतज्ञान से सम्पन्न मनुष्य भी यदि तप-संयम रूप योग को धारण करने में असमर्थ हो तो मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकता।
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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