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आत्मा का दर्शन
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खण्ड-३
मान लेती है और स्व-वस्तु को परकीय इसलिए यह अपेक्षित होता है कि यह आवरण हटे। प्रकाश के सद्भाव में तम की दीवार ढह जाती है। आवरण को हटाने की अपेक्षा प्रकाश को प्रकट करना जरूरी है। साधक आवरण हटाता नहीं। आवरण हटता है वह स्वभाव को जागृत करता है। आवरण विलीन हो जाता है स्वभाव जागरण की प्रक्रिया है संयम संयम का अर्थ है - इन्द्रिय-विजय और मन - विजय। जब वह संयम अनुत्तर होता है, तब साध्य सिद्ध हो जाता है।
१०. आत्मानं संयतं कृत्वा, सततं श्रद्धयान्वितः । आत्मानं साधवेच्छान्तः, साध्ये प्राप्नोति स ध्रुवम् ॥
॥ व्याख्या ॥
साध्य को प्राप्त करने के लिए तीन उपायों का अबलंबन लेना होता है-संयम, श्रद्धा और शम। श्रद्धा के अभाव में संयम का स्वीकार नहीं होता। संयम भौतिक सुख-सुविधा का त्याग है वह तब ही होता है जब कि मन आत्मलीन होता हैं। संयम के द्वारा मानसिक, वाचिक और कायिक क्रियाएं नियंत्रित हो जाती हैं। शम संयम से भिन्न नहीं है। शम का अर्थ है- कषाय-विजय, लेकिन साधना के प्राग् अभ्यास के लिए पृथक् रूप से उल्लेख किया है, जिससे कि साधक सतत सावधान रहे कि मुझे कषाय-विजयी होना है।
११. आत्मैव
परमात्मास्ति,
शरीरमुक्तिमापन्नः,
जो श्रद्धा संपन्न पुरुष अपने को संयमी बना आत्म साधना करता है, वह शांत-कषायरहित पुरुष साध्य को प्राप्त होता है।
रागद्वेषविवर्जितः । आत्मा ही परमात्मा है। आत्मा राग-द्वेष और शरीर से मुक्त भवेदशौ ॥ होकर परमात्मा हो जाता है।
परमात्मा
॥ व्याख्या ॥
जैन दर्शन की यह मान्यता है कि आत्मा ही परमात्मा है। विश्वजनमत का बहुत बड़ा भाग आत्मा को परमात्मा नहीं मानता। वह कहता है कि परमात्मा एक है। अन्य आत्माएं उसी परमात्मा की अंश हैं। वे शुद्ध होने पर परमात्मा में ही विलीन हो जाती हैं। स्वतंत्र रूप से उनका कोई अस्तित्व नहीं है।
जैन दर्शन इससे सहमत नहीं है। वह प्रत्येक आत्मा को पूर्ण स्वतंत्र मानता है। आत्मा एक अखंड द्रव्य है। उसके अंश कभी पृथक नहीं हो सकते। अंशों को यदि पृथक् रूप से मानें तो जीवात्मा आत्मा के जो सुख-दुःख के भोग होते हैं वे सब परमात्मा के होते हैं, इससे परमात्मा की शुद्धता नहीं रह सकती।
क्लेश, कर्म फल और चेष्टाओं से जो अपरामृष्ट पुरुष विशेष है वह परमात्मा है परमात्मा की इस परिभाषा से अन्य आत्माओं का उसमें समावेश होना संभव नहीं हो सकता क्योंकि परमात्मा वीतराग है और अन्य आत्माएं सराग । आत्मा की स्वतंत्र सत्ता मान लेने पर परमात्मा की अनेकता में भी कोई बाधा नहीं आती। आत्मा की पृथक् सत्ता और अनंतता गीता से भी स्पष्ट है। श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं- ऐसा कोई समय नहीं था, जब मैं नहीं था, तू नहीं था, ये राजा नहीं थे और न कभी कोई ऐसा समय आएगा जब कि हम सब इसके बाद नहीं रहेंगे।"
आत्मा को एक मान लेने पर विविध व्यक्तियों में विविधता का हेतु क्या होगा, कर्म फल की विभेवता क्यों है और मरने और जीने वाली आत्माएं क्या एक या अनेक हैं- कितने ही प्रश्न हमारे सामने हैं। आत्मा को अनेक मान लेने पर ये विरोध नहीं रहते।
आत्मा और परमात्मा एक है - यह एक ही शर्त पर माना जा सकता है, वह है स्वरूप।' एक आत्मा का जैसा सत्चित्-आनन्द स्वरूप है, वही सबका है। जब आत्मा इस स्वरूप को प्राप्त कर लेती है तब वह परम आत्मा बन जाती है। स्वरूपतः सब आत्माएं एक हैं, लेकिन सत्ता की दृष्टि से एक नहीं हैं। एक आत्मा का स्वरूप आज प्रकट हुआ है और एक का हजार वर्ष बाद। स्वरूप-प्राप्ति की दृष्टि से दोनों एक कैसे हो सकती हैं ?
कई दार्शनिक एक ही परमात्मा को मानते हैं। उनका कहना है, अन्य कोई परमात्मा नहीं बन सकता। 'नर से नारायण' और आत्मा ही परमात्मा है इन लोकोक्तियों का क्या अभिप्राय है, यह भी हमें समझना होगा। जैन दर्शन की मान्यता के आधार पर प्रत्येक आत्मा में परमात्मत्व का बीज विद्यमान है। जब इसे अनुकूल योग मिलता है वह परमात्मा बन जाती है।