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________________ संबोधि ३२९ अ. १३ : साध्य साधन-संज्ञान का नहीं। सत्याग्रही असंदिग्ध होता है। साधक के लिए दृढ़ आस्थावान होना आवश्यक है। संदिग्ध व्यक्ति साध्य का साक्षात्कार नहीं कर सकता। ३. विद्यते नाम लोकोऽयं, न वा लोकोऽपि विद्यते । एवं संशयमापन्नः साध्यं प्रति न धावति ॥ विद्यते । ४. विद्यते नाम जीवोऽयं, न वा जीवोऽपि एवं संशयमापन्नः साध्यं प्रति न धावति ॥ " विद्यते । ५. विद्यते नाम कर्मेदं न वा कर्मापि एवं संशयमापन्नः, साध्यं प्रति न धावति ॥ ६. अस्ति कर्मफलं वेद्यं, न वा वेद्यं च विद्यते। एवं संशयमापन्नः साध्यं प्रति न धावति ॥ , , ७. अस्ति लोकोऽपि जीवोऽपि कर्म कर्मफलं ध्रुवम् । एवं निश्चयमापन्नः साध्यं प्रति प्रधावति ॥ ८. निरावृतिश्च निर्विघ्नो, निर्मोहो दृष्टिमानसौ । आत्मा स्यादिदमेवास्ति, साध्यमात्मविदां नृणाम् ॥ लोक है या नहीं इस प्रकार संदिग्ध रहने वाला व्यक्ति साध्य की प्राप्ति के लिए प्रयत्न नहीं करता। जीव है या नहीं इस प्रकार संदिग्ध रहने वाला व्यक्ति साध्य की प्राप्ति के लिए प्रयत्न नहीं करता। ९. आवरणस्य विघ्नस्य, मोहस्य दृक्चरित्रयोः । निरोधो जायते तेन, संयमः साधनं भवेत् ॥ कर्म है या नहीं - इस प्रकार संदिग्ध रहने वाला व्यक्ति साध्य की प्राप्ति के लिए प्रयत्न नहीं करता। कर्म का फल भोगना पड़ता है या नहीं इस प्रकार संदिग्ध रहने वाला व्यक्ति साध्य की प्राप्ति के लिए प्रयत्न नहीं करता। ॥ व्याख्या ॥ साध्य का अधिकारी आस्थावान है, अनास्थावान नहीं। जो अनास्थावान है वह धर्म में प्रवृत्त भी नहीं हो सकता। धर्म में वहीं प्रवृत्त हो सकता है जो आस्थावान चाहता है कि मैं क्लेश से मुक्त बनूं, जन्म और मृत्यु का विजेता बनूं। मेरी आत्मा परमात्मा है। जब मेरे बंधन छूट जायेंगे तब मैं आत्म-स्वरूप में अवस्थित हो सकूंगा। भोग मेरा साध्य नहीं है, मेरा साध्य है योग जीव, लोक, कर्म और कर्म-फल- ये आस्था के मूल सूत्र हैं। इनमें आस्था रखना प्रत्येक आस्तिक का कर्तव्य है।. लोक है, जीव है, कर्म है और कर्मफल भुगतना पड़ता है इस प्रकार जो आस्थावान् है, वह साध्य की प्राप्ति के लिए प्रयत्न करता है। आत्मविद्-आत्मा को जानने वाले पुरुषों के लिए निरावरण, निर्विघ्न निरन्तराय, निर्मोह और दृष्टि सम्पन्न सम्यग्दर्शन युक्त आत्मा ही साध्य है। || व्याख्या || अध्यात्म व्रष्टा व्यक्तियों का साध्य आत्मा है लेकिन वह शुद्ध आत्मा है, अशुद्ध नहीं आत्मा की अशुद्धता वास्तविक नहीं है, वह कर्मजनित है, परकृत है पर के जब संस्कार छूट जाते हैं तब आत्मा स्वरूप में स्थित हो जाती है। आत्मा का स्वरूप है-अनंत ज्ञानमय, अनंत दर्शनमय, अनंत आनंदमय और अनंत सुखमय । संयम से आवरण, विघ्न, दृष्टिमोह और चारित्रमोह का निरोध होता है इसलिए वह आत्मा की प्राप्ति-साध्य की सिद्धि का साधन है। ॥ व्याख्या ॥ अनंत ज्ञान, अनंत श्रद्धा, अनंत आनंद और अनंत शक्ति यह आत्मा का मूल स्वभाव है। यह स्वभाव कर्म से तिरोहित ढंका रहता है जब तक स्वभाव का अनावरण न हो तब तक आत्मा भ्रांत रहती है वह पर वस्तु को स्वकीय
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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