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जिनशासन
१. अणुत्तरं धम्ममिणं जिणाणं
णेता मुणी कासवे आसुपण्णे। इदे व देवाण महाणुभावे
. सहस्सणेता दिवि णं विसिठे॥
आशुप्रज्ञ काश्यप मुनि पूर्ववर्ती सभी तीर्थकरों के अनुत्तर धर्म के नेता थे, जैसे स्वर्ग में इन्द्र अधिक प्रभावी और हजारों देवों का नेता होता है।
.२. जमल्लीणा जीवा तरंति संसारसायरमणंतं।
तं सव्वजीवसरणं णंददु जिणसासणं सुइरं॥
जिसमें लीन होकर जीव अनंत संसार-सागर का पार पा जाते हैं, जो सब जीवों के लिए शरणभूत है, वह जिनशासन चिरकाल तक समृद्ध बना रहे।
३. जिणवयणमोसहमिणं,
विसयसुह-विरेयणं अमिदभूयं। : जरमरणवाहिहरणं, .
खयकरणं सव्वदुक्खाणं॥
जिनवचन-जिनशासन एक अमृत तुल्य औषध है। उससे विषय सुख का विरेचन, जरा-मरण और व्याधि का हरण तथा सब दुःखों का क्षय होता है।
१. अणण्णदेसजाया अणण्णाहारवढियसरीरा। जिणसासणमणुपत्ता सव्वे तं बंधवा मुणिया॥
जो भिन्न-भिन्न देशों में जन्मे हैं और भिन्न-भिन्न प्रकार के आहार से जिनके शरीर का संवर्धन हुआ है, जिनशासन की शरण में आ गए वे सब बंधु बन गए।
५. तम्हा सव्वपयत्तेण जो णमुक्कारधारओ। -- सावगो सोवि दट्ठव्वो जहा परमबंधवो॥
इसलिए संपूर्ण प्रयत्न इस मानसिकता में लगे-जो नमस्कार महामंत्र को धारण करने वाला है, वह श्रावक है। उसे परम बंधु माना जाए।
६. जिणक्यणे अणुरत्ता
जिणवयणं जे करेंति भावेण। अमला असंकिलिट्ठा
.. ते होंति परित्तसंसारी॥
जो जिनवचन में अनुरक्त हैं, भावपूर्वक जिनवचंन की अनुपालना करते हैं, अमल हृदयवाले और संक्लेश रहित हैं, वे परित्तसंसारी होते हैं-उनके जन्म-मरण का चक्र सीमित हो जाता है।
.. इणमेव निग्गंथं पावयणं सच्चं अणुत्तरं केवलं पडिपुण्णं नेआउयं संसुद्धं सल्लगत्तणं सिलिमगं मुत्तिमम्गं निज्जाणमग्गं निव्वाणमग्गं अवितहम-
यह निग्रंथ प्रवचन-जिनशासन सत्य, अनुत्तर, अद्वितीय, प्रतिपूर्ण, मोक्ष तक पहुंचाने वाला है। पवित्र एवं अंतःशल्य को काटने वाला है। सिद्धि का मार्ग, मुक्ति का