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आत्मा का दर्शन
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खण्ड-२
धोओ अदासीकता।
प्रकट हुए। दासीपन सिर से उतर गया। वह सदा के लिए
दासवृत्ति से मुक्त हो गई। ध्यान मुद्रा ८३. ततो सामी दढभूमीं गतो। तीसे बाहिं पेढालं नाम महावीर दृढभूमि गए। दृढभूमि के बाहरी भूभाग में
उज्जाणं। तत्थ पोलासं चेतियं। तत्थ अट्ठमेणं पेढ़ाल नाम का उद्यान था। वहां पोलाश नाम का चैत्य भत्तेण अप्पाणएण ईसिंपब्भारगतेण। ईसिपब्भार- था। वहां महावीर ने तेले की निर्जल तपस्या की। ध्यान गतो नाम ईसिं ओणओ काओ। एगपोग्गल- की मुद्रा में खड़े हुए। थोड़ा झुका हुआ शरीर। एक पुद्गल निरुद्धविट्ठी' अणिमिसणयणो। अहापणिहितेहिं (वस्तु) पर टिकी हुई दृष्टि। अनिमिष नयन (अनिमेष गत्तेहिं सव्विंदिएहिं गुत्तेहिं दोवि पादे साहटु प्रेक्षा/त्राटक)। सब अवयव अपने स्थान पर अवस्थित, वग्धारियपाणी एगराइयं महापडिमं ठितो। सब इन्द्रियां गुप्त, दोनों पैर सटे हुए, दोनों हाथ घुटनों की .
ओर फैले हुए-इस मुद्रा में महावीर एकरात्रिकी महाप्रतिमा
में स्थित थे। इन्द्र द्वारा स्तुति ८४.तेणं कालेणं तेणं समएणं सक्केदेविदे देवराया..... देवराज इन्द्र उस समय बहुत से देवी-देवताओं से
बहूहिं देवेहिं देवीहि य सद्धिं संपरिखुडे विहरति। परिवृत हो यात्रा कर रहा था। उसने अपने अवधिज्ञान से जाव सामिं च तहागतं ओहिणा आभोएति, महावीर को देखा। हृष्ट और तुष्ट हुआ। वह आभोएत्ता हट्ठतुट्ठचित्ते आणदिए जाव सिरसा- प्रदक्षिणापूर्वक अञ्जलि को मस्तक पर टिकाकर बोलावत्तं मत्थए अंजलिं कट्ट एवं वयासीणमोत्थुणं अरहंताणं जाव सिद्धिगतिणामधेयं ठाणं सिद्धिगति प्राप्त अर्हत् भगवान को मेरा नमस्कार हो संपत्ताणं। णमोत्थुणं समणस्स भगवतो महति और नमस्कार हो महान पराक्रमी वर्धमान स्वामी को। वे. महावीरवद्धमाणसामिस्स णातकुलवरवडेंसयस्स महावीर णायकुल (नागकुल, णातकुल) के अवतंस हैं। तित्थगरस्स सहसंबुद्धस्स पुरिसोत्तमस्स पुरिस- तीर्थंकर हैं। स्वयंसंबुद्ध हैं। पुरुषोत्तम, पुरुषसिंह, सीहस्स पुरिसवरपुंडरियस्स पुरिसवरगंधहत्थिस्स, पुरुषवरपुण्डरीक और पुरुषवरगंधहस्ति हैं। वे अभयदाता अभयदयस्स जाव ठाणं संपावितुकामस्स। हैं। यावत् सिद्धिगति प्राप्त करने के इच्छुक हैं। वंदामि णं भगवंतं तिलोगवीरं। तत्थ गतं इहगते।। ___मैं मनुष्यलोक में विराजमान त्रिलोक में वीर भगवान पासतु मे भगवं तत्थगए इहगतंतिकटु वंदति- महावीर को वंदना करता हूं। महावीर वहां से मुझे देखें। नमंसति, नमंसित्ता जाव सीहासणवरंसि ऐसा कह उसने वंदना की, नमस्कार किया और पूर्व दिशा पुरत्थाभिमुहे संन्निसन्ने।
की ओर मुंह कर सिंहासन पर बैठ गया। तए णं से सक्के देविदे......बहवे सामाणियता- सामानिक और वायस्त्रिंश देवी-देवताओं को यत्तिसगादयो देवा य देवीओ य आमंतेत्ता एवं संबोधित कर कहावयासीहं भो देवा! समणे भगवं महावीरे तिलोगमहावीरे हे देवो! श्रमण भगवान तीनों लोक में महावीर हैं। वे निच्चं वोसट्ठकाए चियत्तदेहे जे केति उवसग्गा अपने शरीर की सार-संभाल नहीं करते हैं। देव, मनुष्य समुप्पज्जति, तं जहा-दिव्वा वा माणुस्सा वा अथवा तिर्यंचकृत कोई भी अनुकूल अथवा प्रतिकूल तिरिक्खजोणिया वा पडिलोमा वा अणलोमा उपसर्ग होता है, उसे वे सम्यक प्रकार से सहन करते हैं।
१.महावीर की दृष्टि अचित्त पुदगल पर टिकी थी। वे सचित्त वस्तु पर दृष्टि नहीं टिकाते। यथा-दूर्वा आदि (आवश्यक पूर्णि १, पृ. ३०१)।