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अ. २ : साधना और निष्पत्ति
उद्भव और विकास
सो भणति-अत्थि घरं। एत्थ कुमारवर! अच्छाहि। तत्थ सामी एगंतराइं वसिऊण पच्छा गतो विहरति। तेण भणियं-विवित्ताओ वसहीओ। जदि वासारत्तो कीरति तो आगमज्जाह। ताहे सामी अट्ठ उउवद्धिए मासे विहरित्ता वासावासे उबग्गे तं चेव दुइज्जंतगगाम एति। तत्थेगंमि मढे वासावासं ठितो। पढमपाउसे य गोरूवाणि चारिं अलभंताणि जुण्णाणि तणाणि खायंति। ताणि य घराणि उव्वेल्लेंति। पच्छा ते वारेति। सामी ण वारेइ।
कुलपति ने कहा कुमारप्रवर! यह तुम्हारा ही घर है। तुम यहां रहो।
महावीर एक रात वहां रहकर आगे विहार करने लगे। कुलपति ने कहा-यह एकांत स्थान है। यदि आप वर्षावास बिताना चाहें तो पुनः आ जाएं।
महावीर ऋतुबद्ध काल के आठ महीनों तक विहरण कर, वर्षावास को निकट जान पुनः उसी स्थान पर आ गए। एक मढ़ (कुटीर) में वर्षावास के लिए ठहरे।
प्रथम प्रावृट्काल में चारा न मिलने पर गाय, बछड़े आदि पुराने तृणों को खाने लगे। वे तापसों की झोंपड़ियों की ओर लपके। तापसों ने उन्हें रोका। महावीर ने उन्हें नहीं रोका।
तापसों ने कुलपति से कहा-महावीर इन गायों को रोक नहीं रहे हैं।
कुलपति ने अनुशासन की भाषा में कहा-कुमारप्रवर! पक्षी भी अपने घोंसले की सुरक्षा करता है। तुम भी उन गायों को रोको। कुलपति ने यह बात बड़ी मृदुता के साथ . कही।
पच्छा ते दूइज्जंतगा तस्स कुलवइस्स साहेति। जहा एस एताणि ण वारेति। ताहे. सो कुलवती तं अणुसासेति, भणति- कुमारवरा! सउणीवि ताव णेड्डं रक्खति। तुमंपि वारेज्जासित्ति सप्पिवासं भणति।
७. ताहे सामी अचितत्तोग्गहोत्ति निम्गतो। इमे य तेण पंच अभिग्गहा गहिता, तं जहा
अचियत्तोगहे ण वसितव्वं। निच्चं वोसढे काए। मोणं च। पाणीसु भोत्तव्वं।........ गिहत्थी न वंदियव्वो न अब्भुट्टेयव्वोत्ति।
यह अप्रीतिकर स्थान है, मुझे यहां नहीं रहना चाहिए-यह सोच महावीर ने वहां से प्रस्थान कर दिया। उसी दिन से महावीर ने पांच अभिग्रह धारण किएमैं अप्रीतिकर स्थान में नहीं रहूंगा। शरीर की सार-संभाल नहीं करूंगा। मौन रहूंगा। कर पात्र रहूंगा-हाथ में भोजन करूंगा। गृहस्थ का अभिवादन और अभ्युत्थान नहीं करूंगा।
८. गोसालेण किर तंतुवायसालाए भणियं-अहं तव
भोयणं आणामि गिहिपत्ते काउं। तं पि भगवया नेच्छियं।
भगवान महावीर के संकल्प-'मैं कर पात्र रहूंगा' की साधनाकाल में कसौटी हुई। गोशालक में तंतुवायशाला में महावीर से पूछा-मैं आपके लिए भोजन लाऊं? महावीर ने यह कहकर निषेध कर दिया कि मैं गृहस्थ के पात्र में भोजन नहीं करूंगा। यह संकल्प साधनाकाल तक था।
कैवल्य होने के बाद महावीर लोहार्य (आर्य सुधर्मा) के द्वारा लाया गया भोजन करते थे, इसलिए कहा गया है
उप्पन्नणाणस्स उ लोहज्जो आणेति।