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आत्मा का दर्शन
भवति तदा विलग्गितुं तं पिबत्ता आरुसिताण तत्थ हिंसिंसु ।
• मुइंगादीवि पाणजातीतो आरुज्झ कायं विहरंति जाव गाते वत्थे वा चंदणादिविलेवणाणं चुन्नाईणं च केति अवयवा धरिता ताव ते खाइंसु । तेहिं निट्ठिएहिं पच्छा ते ठितस्स वा चंकमंतस्स वा आरुट्ठा समाणा कायं विहिंसिंसु ।
जे वा अजितिंदिया ते गंधे अग्घात तरुणइत्ता तम्गंधमुच्छिता भगवंतं भिक्खायरियाए हिंडतं गामानुग्गामं दूइज्जतं अणुगच्छंता अणुलोमं जायंति - देहि अम्हवि एतं गंधजुत्तिं । तुसिणीए अच्छमाणे पडिलोमे उवसग्गे करेंति । एयं पडिमं ठियंपि उवसग्गेंति ।
३. एवं इत्थियाओऽवि तस्स भगवतो गातं रयस्वेदमलेहि विरहितं । निस्साससुगंधं च मुहं अच्छीणि य निसग्गेण चेव नीलुप्पलपलासोवमाणि
सुविरहियाणि दठ्ठे भांति सामि कहिं तुभे वसहिं उवेह ? पुच्छंति भांति अन्नमन्नाणि ।
४. तए णं भगवतो कम्मारग्गामे बाहिं पडिमं ठियस्स......
५. ततो बीयदिवसे छट्ठपारणए कोल्लाए संनिवेसे घतमधुसंजुत्तेणं परमन्त्रेणं बहुलेण माहणेण पडिलाभितो । पंच दिव्वा ।
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खण्ड - २
तक भ्रमर उसका पान करते । स्नेह न मिलने पर और अधिक रुष्ट हो महावीर को काटते।
कुलपति का आश्रम
६. ताहे सामी विहरमाणो गतो मोरागं संनिवेसं । तत्थ दूइज्जतगा णाम पासंडत्था । तेसिं तत्थ आवासा । तेसिं च कुलवती भगवतो पितुमित्तो। ताहे सो सामिस्स सागतेणं अवगतो । ताहे सामिणा पुव्वपतोगेण तस्स सागतं दिनं ।
चींटियां उनके शरीर को घेर लेतीं। जब तक शरीर एवं वस्त्र पर सुगंधित चूर्ण का अवयव शेष रहा, तब तक वे उसे खाती रहीं। जब वह समाप्त हो गया तो वे महावीर को काटतीं, चाहे वे खड़े हों अथवा बैठे हों।
अजितेन्द्रिय युवक महावीर के शरीर से आनेवाली गंध में आसक्त हो जाते। जब वे भिक्षा के लिए ग्रामानुग्राम जाते तो वे उनके पीछे-पीछे घूमते । महावीर से कहते - हमें भी इस गंध का योग ( नुस्खा) दो। महावीर मौन रहते। वे प्रतिकूल उपसर्ग करते ।
प्रतिमा में स्थित महावीर को भी वे उपसर्ग करते ।
महावीर का गात्र रज, मैल और पसीने से रहित था । उनका मुख निःश्वास से निकलने वाली सुरभि से सुवासित था। आंखें निसर्ग से ही नीलोत्पल के समान विकस्वर, पलाश कुसुम के समान रक्ताभ, मैल और अश्रु विरहित थीं। उन्हें दैखकर स्त्रियां कहतीं - स्वामिन्! आप कहां रहते हैं ? फिर परस्पर बात करने लग जातीं।
महावीर कर्मारग्राम के बाहर प्रतिमा में स्थित थे।
दूसरे दिन कर्मारग्राम से विहार कर महावीर कोल्लाक सन्निवेश में आए। वहां बहुल ब्राह्मण के घर घृत और शर्करायुक्त खीर से षष्ठभक्त (दो दिन का उपवास) का पारणा किया। पांच दिव्य प्रकट हुए।
स्वतंत्रता का संकल्प
कोल्लाक सन्निवेश से महावीर मोराक सन्निवेश गए । वहां तापसों का आश्रम था। आश्रम का कुलपति महावीर के पिता का मित्र था । उसने महावीर का स्वागत किया। महावीर ने भी पूर्व संबंध के कारण उसका स्वागत किया।