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________________ संबोधि १२५ आमुख गृहवास में चला जाऊं। वहां मेरा पूर्ववत् ठाटबाट रहेगा। सूर्योदय होते ही मैं भगवान् महावीर को पूछकर घर चला जाऊंगा।' - इस मानसिक दुविधा के जाल में फंसे हुए मुनि मेघकुमार की रात बहुत लंबी हो गयी। ज्यों-त्यों रात बीती। सूर्योदय हुआ। मुनि मेघकुमार भगवान् के पास आया, वंदना-नमस्कार कर मौन होकर बैठ गया। ___ भगवान् ने उसकी मनःस्थिति को ताड़ते हुए कहा-'मेघ! तुम रात्रि के इन स्वल्प कष्टों से विचलित होकर घर जाने की तैयार कर रहे हो?' मुनि मेघ ने कहा-'भंते! आप यथार्थ कह रहे हैं। मेरा मन विचलित हो गया है।' भगवान् अतीन्द्रिय-द्रष्टा थे। वे सब-कुछ जानते थे-जो घटित हो चुका है, घटित हो रहा है और घटित होगा। उनका ज्ञान निरावरण था; कालातीत और क्षेत्रातीत था। मेघकुमार को पूर्वभव का वृत्तांत बताते हुए भगवान् बोले-'मेघ! सुनो, मैं तुम्हारे पूर्वभव का वृत्तांत बता रहा हूं। आज के इस राजकुमार के भव से तीन जन्म पूर्व तुम वैताढ्य पर्वत की तलहटी के सघन जंगल में हाथी थे। तुम्हारा नाम 'सुमेरुप्रभ' था। तुम यूथपति थे। तुम्हारे परिवार में अनेक हाथी और अनेक हथिनियां थीं। तुम आनंदपूर्वक अपने दिन बिता रहे थे। सर्वत्र तुम निर्भयता से घूमते थे। एक बार ग्रीष्म ऋतु का समय था। जेठ का महीना। चिलचिलाती धूप। वेगवान तूफान। वृक्षों के संघट्टन से जंगल में दावानल सुलग गया। चारों ओर पशु दौड़-धूप करने लगे। तुम उस समय बूढ़े हो गये थे। तुम्हारा शरीर जर्जरित था। बल क्षीण हो चुका था। सारा यूथ इधर-उधर बिखर गया। तुम अकेले रह गए। प्यास के कारण पानी की खोज में जा रहे थे। एक सरोवर देखा। उसमें पानी कम और कीचड़ अधिक था। तुम पानी पीने की तृष्णा से उसमें घुसे और कीचड़ में धंस गए। उस समय एक युवा हाथी ने तुम्हें देखा। उसको पूर्व वैर की स्मृति हो आयी। वह क्रोध से अरुण होकर चीत्कार करता हुआ तुम्हारे पास आया और ... अपने दंत-मूसल से तुम पर प्रहार करने लगा। तुम शक्तिहीन थे। प्रतिरोध नहीं कर सके। तुम्हें मरणासन्न कर .... वह युवा हाथी बहुत प्रसन्न हुआ। वैर का प्रतिशोध ले सकने की प्रसन्नता से वह फूला नहीं समाया। चिंतातुर अवस्था में तुम्हारी मृत्यु हो गयी। वहां से तुम विंध्याचल पर्वत की तलहटी में गंगा नदी के दक्षिण तट पर फिर हाथी के रूप में उत्पन्न हुए। तुम युवा हुए। हस्तियूथ के स्वामी बने। तुम्हारा यूथ बहुत विशाल था। एक बार • तुमने दावाग्नि को देखा। मन एकाग्र हुआ। पूर्व की स्मृति हो आयी। दावाग्नि से उत्पन्न कष्ट साक्षात् हो गए। • तुमने अपनी सुरक्षा के लिए एक योजन भूमि को समतल बनाया जिससे कि दावानल की आपत्ति से बचा जा सके। एक बार अचानक वन में आग लगी। सभी वन्य-पशु भयभीत होकर जीवन की सुरक्षा के लिए इधर-उधर दौड़ने लगे। तुम भी अपने परिवार के साथ सुरक्षित मंडल में आ गए। और भी अनेक वन्य- पशु वहां पहुंच गए थे। वहां अग्नि का भय नहीं था, क्योंकि वहां घास-फूस, वृक्ष-लताएं थी ही नहीं। सारा समतल मैदान था। तुमने शरीर को खुजलाने के लिए अपना एक पैर उठाया। शरीर को खुजलाकर तुमने अपना पैर नीचे रखना चाहा। तुमने देखा कि पैर के उस भू-भाग पर एक खरगोश प्राण-रक्षा के लिए बैठा है। पैर रखने पर वह मर न जाये, इस आशंका से तुमने अपने एक पैर को अधर आकाश में लटकाये रखा। एक दिन बीता। दो दिन बीते। अभी भी दावानल सुलग रहा था। तीसरे दिन का पूर्वाह्न भी बीत गया। अब आग शांत हुई। सब पशु अपने-अपने सुरक्षित स्थान को लौट गए। तुम्हारा हस्ति-परिवार भी चला गया। वह खरगोश भी भाग गया। तुमने पैर नीचे रखना चाहा। पैर अकड़ गया था। वह नीचे नहीं सरका। तुम्हारा भारी-भरकम शरीर लड़खड़ा गया। तीन दिन के भूखे-प्यासे और तीन पैरों पर इतने लंबे समय तक खड़े रहने के कारण तुम्हारी शक्ति क्षीण हो गयी थी। तुम धड़ाम से नीचे गिर पड़े। उस समय तुम्हारा आयुष्य सौ वर्ष का था। तुम्हारी तत्काल मृत्यु हो गयी। वहां से तुम श्रेणिक के घर पुत्र रूप में उत्पन्न हुए।
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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