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________________ आत्मा का दर्शन १२४ खण्ड-३ उत्सुक हो उठा। अश्व पर आरुढ़ होकर वह भगवान् के समवसरण में गया। भगवान् की अमोघ वाणी सुनकर वह अत्यंत प्रसन्न हुआ। उसका वैराग्य-बीज अंकुरित हो गया। पूर्वसंचित कर्मों की लघुता से उसके मन में प्रव्रज्या की भावना उत्पन्न हुई। वह घर आया। माता-पिता से कहा-'मैं प्रव्रज्या ग्रहण करने के लिए उत्सुक हूं।' यह विचार सुन महारानी धारिणी आकुल-व्याकुल हो गईं। वह अपने पुत्र का वियोग नहीं चाहती थीं। माता धारिणी और पुत्र मेघ के बीच लंबा संवाद चला। माता ने उसे समझाने का पूरा प्रयत्न किया। मेघ का मन मोक्षाभिमुख हो चुका था। माता की बातों का उस पर कोई असर नहीं हुआ। उसने माता को संसार की असारता और दुःखप्रचुरता से अवगत कराया। माता ने अंत में कहा-'पुत्र! तुम प्रव्रजित होना ही चाहते हो, हम सब से बिछुड़ना ही चाहते हो तो जाओ, सुखपूर्वक प्रव्रजित हो जाओ। किन्तु वत्स! एक बात हमारी भी मानो। हम तुम्हें अपनी आंखों से एक बार राजा के रूप में देखना चाहते हैं। तुम एक दिन के लिए ही राजा बन जाओ। फिर जैसा तुम चाहो, वैसा कर लेना।' मेघकुमार ने एक दिन के लिए राजा बनना स्वीकार कर लिया। ___मेघकुमार के राज्याभिषेक की तैयारियां हुई। शुभ मुहूर्त में राज्याभिषेक की विधि संपन्न हुई। मेघकुमार राजा बन गया। सभी ने उसे बधाइयों से वर्धापित किया। राज्य-संपदा मेघकुमार को लुभा नहीं पाई। ___एक दिन बीत गया। मेघकुमार की दीक्षा की तैयारियां होने लगीं। आवश्यक उपकरण लाये गए। परिवार और नगरजनों से परिवृत होकर मेघकुमार भगवान् महावीर के पास आया। माता-पिता ने भगवान् से निवेदन करते हुए कहा-'देव! हमारा यह पुत्र मेघ आपके चरणों में प्रव्रजित होना चाहता है। यह नवनीत-सा कोमल है। यह प्रचुर काम-भोगों के बीच पला-पुसा है, फिर भी काम-रजों से स्पृष्ट नहीं है, भोगों में आसक्त नहीं है। पंक में उत्पन्न होने वाला पंकज पंक से लिप्त नहीं होता, वैसे ही यह कुमार भोगों से निर्लिप्त है। आप इसे अपना शिष्य बनाकर हमें कृतार्थ करें।' भगवान् ने मेघ को प्रव्रजित होने की आज्ञा दी। मेघकुमार अपने आभूषण उतारने लगा। भगवान् महावीर ने स्वयं मेघकुमार को प्रव्रजित किया, उसका केश लुंचन किया। भगवान् ने स्वयं उसे साधुचर्या की जानकारी देते हुए कहा-'वत्स! अब तुम मुनि बन गए हो। अब तुम्हारे जीवन की दिशा बदल गयी है। अब तुम्हें यतनापूर्वक चलना है, यतनापूर्वक बैठना है, यतनापूर्वक सोना है, यतनापूर्वक खड़े रहना है, यतनापूर्वक बोलना है और यतनापूर्वक ही भोजन करना है। इस चर्या में लेशमात्र भी प्रमाद न हो। यतना संयम है, मोक्ष है। अयतना असंयम है, बंधन है।' ___ पहला दिन बीता। रात आयी। विधि के अनुसार सभी श्रमणों का शयन-स्थान निश्चित हुआ। मुनि मेघकुमार एक दिन का दीक्षित मुनि था। उसका शयन-स्थान सबसे अंत में आया। वह स्थान द्वार के पास था। शताधिक मुनि स्वाध्याय आदि के लिए रात्रि में बाहर आने-जाने लगे। कुछ मुनि प्रस्रवण के लिए बाहर निकले। उस समय द्वार के पास सोये मुनि मेघकुमार की नींद उचट गयी। सर्वत्र अंधकार व्याप्त था। स्पष्ट कुछ भी नहीं दिख रहा था। बाहर आते-जाते मुनियों के पैर-स्पर्श से मुनि मेघ विचलित हो गया। शरीर धूलिमय हो गया। उसने नींद लेने का बहुत प्रयत्न किया, पर सब व्यर्थ। उसने सोचा-मैं राजकुमार था। कितने सुख में पलापुषा! सब प्रकार की सुविधाएं मुझे उपलब्ध थीं। सारे श्रमण मुझसे बात करते, मेरा आदर-सम्मान करते। मुझसे मीठी-मीठी बातें करते और मुझे नाना प्रकार के रहस्य समझाते। आज मैं प्रव्रजित हो गया। उनकी मंडली में आ मिला। अब कोई भी श्रमण न मुझसे बात करता है और न मेरा आदर-सम्मान ही करता है। वे सब मुझे ठोकरें लगा रहे हैं, नींद भी नहीं ले पा रहा हूं। इस अनपेक्षित मुनि जीवन से अच्छा है कि मैं पुनः
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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