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आत्मा का दर्शन १२६
खण्ड-३, पशु की उस योनि में तुम सम्यक् दर्शन से समन्वित नहीं थे, फिर भी तुमने उस विकराल और असामान्य वेदना को समभावपूर्वक सहा। उस अपूर्व तितिक्षा से ही तुम्हें मनुष्य-जन्म मिला है। आज तुम सम्यक्-दर्शन संपन्न मुनि हो। आज एक रात के इन तुच्छ शारीरिक कष्टों से विचलित हो गए? तुम इतने अधीर हो गए? घर जाने की मनःस्थिति बना ली? तुम अपने पूर्व-जन्म की स्मृति करो और देखो कि उन कष्टों की तुलना में ये क्या कष्ट है? कहां मेरु कहां राई?
मेघ का सोया हुआ चैतन्य जाग गया। उसके मन में एक नयी सिहरन दौड़ गयी। चित्त एकाग्र हो गया। पूर्वजन्म की स्मृति ताजा हुई और उसके सामने चलचित्र की भांति अतीत का सारा दृश्य आने लगा। उसने पूरी घटना का साक्षात्कार किया। भगवान् महावीर ने जैसा कहा, वैसा अक्षरशः सामने आ गया।
पूर्वजन्म की घटना को साक्षात् कर वह गद्गद हो उठा। उसका संवेग दुगुना हो गया। आंखों से आनंद के आंसू टपकने लगे। हृदय हर्षान्वित हो उठा। सारा शरीर रोमांचित हो गया। वह तत्काल भगवान् को वंदना-नमस्कार कर बोला-'भगवन् ! आज से दो आंखें मेरी अपनी रहेंगी, शेष सारा शरीर इन निग्रंथों के लिए समर्पित रहेगा। भंते! आपने मुझे पुनः संयम में स्थिर किया है। आप मुझे पुनः संयम जीवन दें और कृतार्थ करें।'
भगवान् ने उसे पुनः संयम में आरूढ़ किया।
अब निग्रंथ मेघ मुनिचर्या का अप्रमत्तभाव से पालन करता हुआ विहरण करने लगा। उसने पांच समितियों और तीन गुप्तियों को जीवनगत कर लिया। सारी लेश्याएं आत्माभिमुख कर वह जनपद-विहार करने लगा। संवेग वृद्धिंगत होता गया। उसने अपने आपको संयम के लिए समर्पित कर तपोयोग की साधना में लीन कर डाला। भगवान् महावीर की अनुज्ञा प्राप्त कर उसने भिक्षु की बारह प्रतिमाओं की एक-एक कर आराधना की। ‘गुणरत्न संवत्सर' नामक तपायोग से आत्मा को भावित करता हुआ वह एक बार राजगृह नगर में आया। वहां गुणशील नामक उद्यान में ठहरा। रात्रि में वह धर्मजागरिका कर रहा था। उसके मन में एक विकल्प उठा-'मेरा तपोयोग सानंद चल रहा है। मेरा सारा शरीर तपस्या से कृश हो चुका है। मुझमें अभी से शक्ति अवशिष्ट है। जब तक उत्थान, कर्म, बल, वीर्य और पुरुषकार-पराक्रम विद्यमान है, तब तक मुझे संयम शेष पराक्रम करना है। प्रातःकाल होते ही मैं भगवान् महावीर से अनुज्ञा प्राप्त कर, गणधर गौतम आदि श्रमणों तथा श्रमणियों से क्षमायाचना कर विपुल पर्वत पर धीरे-धीरे आरोहण कर, वहां पृथ्वी शिलापट्ट पर प्रायोपगमन अनशन स्वीकार कर लूंगा।'
प्रातःकाल हुआ। वह भगवान महावीर के पास आया। वंदना-नमस्कार कर. हाथ जोड़ एक ओर मौन रूप से उपासना में बैठ गया। भगवान् ने उसके मन की बात अभिव्यक्त करते हुए कहा-'मेघ! जो तुमने सोचा है, वैसा करना ही श्रेयस्कर है। विलंब मत करो।' मेघ ने अनशन स्वीकार कर लिया। अनेक निग्रंथ अग्लानभाव से उसकी परिचर्या करने लगे।
___ मुनि मेघ ग्यारह अंग पढ़ चुका था। उसके संयम-पर्याय का बारहवां वर्ष पूरा हो रहा था। एक मास का अनशन पूरा कर मुनि मेघकुमार मृत्यु को प्राप्त हो गया। परिचर्या में नियुक्त श्रमण उसके भंडोपकरण लेकर भगवान् के पास आये और बोले-'भंते! ये भंडोपकरण अनगार मेघ के हैं। भंते! मेघ यहां से मरकर कहां उत्पन्न हुआ है? भगवान ने कहा-'वह यहां से मरकर 'विजय' नामक महाविमान में देवरूप में उत्पन्न हुआ है। उसका आयुष्य तेतीस सागर का है। आयुष्य पूरा होने पर वह महाविदेह में उत्पन्न होगा और वहां समस्त कर्मों का क्षय कर सिद्ध, बुद्ध और मुक्त हो जायेगा।