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________________ आत्मा का दर्शन खण्ड-३ का भी ज्ञान नहीं रहता। वह आत्म-चैतन्य और आत्मानंद में इतना खो जाता है कि बाहर उसे कुछ दिखाई नहीं देता। समाधि अभेददृष्टि से परमात्मा के साथ एकीकरण है और भेद-दृष्टि से आत्मा का स्वयं परमात्मा होना है। अभेदद्रष्टा आत्मा का परमात्मा के साथ विलीनीकरण में व्यग्र रहते हैं। आत्मा का स्वतंत्र व्यक्तित्व प्रकरान्तर से वहां स्वतः प्रस्फुट हो जाता है। आत्मा के एकत्व और अनेकत्व की दो दृष्टियों का समन्वय ही हमें पूर्णता का अनुभव करा सकता है। समाधि कर्म-क्षय की सर्वोत्तम दशा है। मोह का आवरण यहां हट जाता है और आत्मा का स्वभाव प्रकट हो जाता है। शंकराचार्य का कथन है कि समाहित व्यक्ति को प्रबोध-ज्ञान की उपलब्धि होती है। जैन दर्शन की भाषा में यह केवल-ज्ञान दशा है। आत्मा इस अवस्था में सर्व पदार्थों की विविध दशाओं का साक्षात् ज्ञान कर लेती है। उसके लिए कोई अज्ञेय नहीं रहता। ३०.ओज'श्चित्तं समादाय, ध्यानं यस्य प्रजायते। जो निर्मल अथवा राग-द्वेष मुक्त चेतना का आलंबन लेकर धर्मे स्थितः स्थिरचित्तो, निर्वाणमधिगच्छति॥ ध्यान करता है, वह धर्म में स्थित हो जाता है। वह स्थिरचित्त होकर निर्वाण को प्राप्त कर लेता है। ॥ व्याख्या ॥ ध्यान का अर्थ है-मन का आत्मा के साथ संयोजन। उसका पहला हेतु है मन की पवित्रता। मन की तह में छिपी हुई जो वासनाएं हैं उन्हें एक-एक कर बाहर निकालना मन को पवित्र करना है। मन में असंख्य संस्कार हैं। राग, द्वेष, मद, मोह, ईर्ष्या, लोभ, ममत्व आदि विकार मन को मलिन करते हैं। साधना के द्वारा इन दोषों को उखाड़कर मैत्री, प्रमोद, सरलता, सद्भावना, अनाशंसा, विनम्रता, निर्ममत्व, आकिंचन्य आदि गुणों को स्थान देना सिद्धि की ओर अग्रसर होना है। मन को पवित्र करने का यही अर्थ है। चेतना सतत प्रवहमान है। जो चेतना बाहर जाती है, उसका प्रवाहात्मक अस्तित्व मन है। शरीर का अस्तित्व जैसे निरंतर है, वैसे मन का अस्तित्व निरंतर नहीं रहता। मन केवल मनन-काल में होता है। वास्तव में मानसिक समता ही मनःशुद्धि है। सामान्यतः यह लोक-भाषा है कि मन चंचल हैं, उसमें विक्षेप होता है। परंतु यह तब तक होता है जब तक कि मन का इन्द्रियों के साथ गाढ़ संपर्क होता है। जब मन इनसे संबंध-विच्छेद कर आत्माभिमुख होता है, तब वह चंचल नहीं होता, धीरे-धीरे एकाग्र बन जाता है। ___ जिस व्यक्ति की चेतना का प्रवाह बाह्याभिमुख है, वह ध्यान नहीं कर सकता। जो अपनी चेतना को आत्माभिमुख करता है, वही ध्यान का अधिकारी होता है। मनः शुद्धिः और मनःएकाग्रता से आत्मा निर्वाण, को प्राप्त करती है। ३१. नेदं चित्तं समादाय, भूयो लोके स जायते। निर्मल चित्तवाला व्यक्ति बार-बार संसार में जन्म नहीं लेता। संज्ञिज्ञानेन जानाति, विशुद्धं स्थानमात्मनः॥ वह संज्ञिज्ञान-जाति-स्मृति के द्वारा आत्मा के विशुद्ध स्थान को जानता है। ॥ व्याख्या ॥ भगवान् महावीर ने कहा-'धम्मो सुद्धस्स चिट्ठइ'-धर्म मानसिक विशुद्धि में निवास करता है। शुद्धि उसकी होती है जो सरल है। सरलता का अर्थ है-कथनी और करनी की समानता। 'सरलता वह प्रकाश-पुंज है, जिसे हम चारों ओर से देख सकते है।' सरलता चित्तशृद्धि का अनन्य उपाय है। जब तक मन पर अज्ञान, संदेह, माया और स्वार्थ का आवरण रहता है तब तक वह सरल नहीं होता। इन दोषों को दूर करने पर ही व्यक्ति का मन खुली पोथी जैसा हो सकता है, चाहे कोई भी व्यक्ति किसी भी समय में उसके मन को पढ़ सकता है। जब तक मन में छिपाव, घुमाव और अंधकार रहते हैं, तब तक मन की सरलता प्राप्त नहीं होती। असरल मन सदा मलिन रहता है। मलिन मन से विचार और आचार भी मलिन हो जाते हैं। अतः चित्त की निर्मलता से आत्म-स्वरूप का सहज परिज्ञान हो सकता है। १. ओज-राग-द्वेष मुक्त अथवा निर्मल। २.न+इदम्।
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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