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________________ संबोधि १६५ अ. ३ : आत्मकर्तृत्ववाद २४. धूमहीनो यथा वह्निः, क्षीयतेऽसौ निरिन्धनः। जिस प्रकार धूम-हीन और इंधन-हीन अग्नि बुझ जाती है, . एवं कर्माणि क्षीयन्ते, मोहनीये क्षये गते॥ उसी प्रकार मोहकर्म के क्षीण होने पर दूसरे कर्म क्षीण हो जाते हैं। २५.शुष्कमूलो यथा वृक्षः, सिच्यमानो न रोहति। जिसकी जड़ सूख गई हो वह वृक्ष सींचने पर भी अंकुरित नैवं कर्माणि रोहन्ति, मोहनीये क्षयं गते॥ नहीं होता, उसी प्रकार मोहकर्म के क्षीण होने पर कर्म अंकुरित नहीं होते। २६.न यथा दग्धबीजानां, जायन्ते पुनरंकुराः। जिस प्रकार जले हुए बीजों से अंकुर उत्पन्न नहीं होते, उसी कर्मबीजेषु दग्धेषु, न जायन्ते भवांकुराः॥ प्रकार कर्म-बीजों के जल जाने पर जन्म-मरण रूप अंकुर उत्पन्न नहीं होते। ॥ व्याख्या ॥ कबीर ने कहा है- 'जो मरने से जग डरे, मो मन में आनंद। . कब मरिहो कब भेटि हों, पूरण परमानंद॥' 'जगत् मरने से डरता है किन्तु मैं मरने में आनंद मानता हूं। मैं कब मरूं और कब उस पूर्ण परमानंद का साक्षात् करूं। वहां कोई विजातीय तत्त्व नहीं है। वहां न शरीर है, न मन है, न इन्द्रियां और न बुद्धि। बस सिर्फ चैतन्य है। उपरोक्त श्लोकों (२० से. २६) में यह स्पष्ट किया है जिसका जो मूल है उसका नाश होने पर शेष विनष्ट हो जाता है। आत्मा के पूर्णत्व की अभिव्यक्ति में बाधक हैं-कर्म। मोह कर्म उनमें मूल है। मोह के क्षीण होने पर शेष कर्म अवशेष हो जाते हैं। आठों ही कर्मों के क्लिय होने पर आत्मा के लिए कोई पारतंत्र्य नहीं रहता। वह विकृति से सर्वथा मुक्त होकर प्रकृति में अवस्थित हो जाती है। २७.विशुद्धया प्रतिमया, मोहनीये क्षयं गते। . सर्वलोकमलोकं च, वीक्षते सुसमाहितः॥ २८.सुसमाहितलेश्यस्य, · अवितर्कस्य संयतेः। सर्वतो विप्रमुक्तस्य, आत्मा जानाति पर्यवान्॥ विशुद्ध प्रतिमा के द्वारा मोह-कर्म के क्षीण होने पर समाहित आत्मा समस्त लोक और अलोक को देख लेता है। जिसकी लेश्या-भावधारा समाहित होती है, जो सुख-सुविधा की तर्कणा-ताक में नहीं रहता और जो बाह्य और आभ्यन्तर संयोगों अथवा संबंधों से सर्वथा मुक्त है, उस संयमी की आत्मा लोक-अलोक के नाना पर्यवों-अवस्थाओं को जान लेती है। तपस्या के द्वारा जो कर्महेतुक लेश्याओं का विलय करता है, उसका दर्शन परिशुद्ध हो जाता है। शुद्ध दर्शन वाला व्यक्ति उर्ध्वलोक, अधोलोक और तिर्यग्लोक में अवस्थित सब पदार्थों को देखता है। २९. तपोपहतलेश्यस्य, काममूर्ध्वमधस्तिर्यक्, दर्शनं स परिशुद्ध्यति। सर्वमनुपश्यति॥ ॥ व्याख्या ॥ योग का अंतिम अंग समाधि है। उसका अर्थ है-आत्मनिष्ठा, बहिर्भाव से सर्वथा विलग होना। यहां परमात्मा और स्वात्मा का पूर्ण सादृश्य प्रतीत ही नहीं, अनुभूत होने लगता है। आत्मा की मौन ध्वनि मुखरित हो उठती है। 'जो परमात्मा है वह मैं हूं और जो मैं हूं वह परमात्मा है' यह सत्य समाधि की नीची अवस्थाओं में भी उसे प्रतीत होने लगता है। वस्तुतः परम सत्य की दृष्टि में आत्मा और परमात्मा का स्वरूप अभिन्न है। भिन्नता व्यवहार में है। अभेद का उपासक भिन्नता के घेरे को लांघकर अभेद में चला जाता है। समाधि परमात्मस्थता का सर्वोच्च सोपान है। योगी वहां बहिःस्थता को सर्वथा भूल जाता है। वह क्या है ? किसका है ? कैसा है? कहां है? इन विकल्पों से अतीत हो जाता है ? उसे अपने शरीर १. प्रतिमा जैन आगम सम्मत तपस्या और ध्यान साधना का विशेष प्रयोग।
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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