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आत्मा का दर्शन
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१७. उदयेन
च तीव्रेण,
ज्ञानावरणकर्मणः । उदयो जायते तीव्रो, दर्शनावरणस्य च ॥ १८. तस्य तीव्रोदयेन स्यात्, मिथ्यात्वमुदितं ततः । अशुभानां पुद्गलानां संग्रहो जायते महान् ॥ ( युग्मम्)
१९. मिथ्यात्वं मोह एवास्ति, तेनात्मा विकृतो भवेत् । सुचिरं बद्ध्यते सैष, स्वल्पं चारित्रमोहतः ॥
२०. अज्ञानञ्चादर्शनञ्च विकुवति न वा जनम् । विकाराणां च सर्वेषां, बीजं मोहोस्ति केवलम् ॥
२१. ते च तस्योत्तेजनाय हेतुभूते परिकरत्वं मोहस्य, कर्माणि दधते
पराण्यपि ।
ततः ॥
खण्ड - ३
ज्ञानावरण कर्म के तीव्र उदय से दर्शनावरण कर्म का तीव्र उदय होता है। दर्शनावरण के तीव्र उदय से मिथ्यात्व - दृष्टि की विपरीतता का उदय होता है और उससे अशुभ कर्म वर्गणा का महान् संग्रह होता है।
२२. मस्तकेषु यथा सूच्यां, हतायां हन्यते तलः । एवं कर्माणि हन्यन्ते, मोहनीये क्षयं गते ॥
२३. सेनापतौ विनिहते, यथा सेना एवं कर्माणि नश्यन्ति, मोहनीये
मोह का ही एक प्रकार है मिथ्यात्व । उससे आत्मा विकृत होता है। मिथ्यात्व - मोह-दर्शनमोह से आत्मा दीर्घकाल तक बद्ध होता है और चारित्रमोह से मिथ्यात्व -मोह की अपेक्षा अल्पकाल तक बद्ध होता है।
॥ व्याख्या ॥
संसारी आत्मा शरीर में आबद्ध है। उसकी बहुमुखी प्रवृत्तियां हैं। उन सबका वर्गीकरण दो भागों किया जा सकता है–बहिर्मुखी प्रवृत्तियां और अंतर्मुखी प्रवृत्तियां । बहिर्मुखी प्रवृत्तियों का कर्ती आत्मा - बहिरात्मा या सकर्मात्मा है। अंतर्मुखी प्रवृत्तियां दो धारा में प्रवाहित होती हैं। एक धारा सर्वथा निष्कर्मात्मा की है और दूसरी सत्कर्मात्मा की । सत्कर्म की तीव्र परिणति ही निष्कर्म अवस्था है, जिसे परमात्मा कहते हैं। इस प्रकार एक ही आत्मा के तीन रूप बन जाते हैं-बहिरात्मा (सकर्मा), अंतरात्मा (सत्कर्मा) और परमात्मा (पूर्ण निष्कर्मा) ।
मोहाच्छन्न आत्मा सकर्मा है। उसका देहाभ्यास नहीं छूटता । पर - पदार्थों में वह स्व-दर्शन करता है। उन्हें अपना समझता है, इसे अविद्या कहते हैं। सैद्धांतिक भाषा में यह मिथ्यात्व है। मोह के दो रूप हैं। एक दर्शन-मोह और दूसरा चरित्र - मोह |
अज्ञान और दर्शन - ज्ञानावरण और दर्शनावरण आत्मा को विकृत नहीं बनाते। जितने विकार हैं, उन सबका बीज केवल मोह है।.
दर्शन - मोह मिथ्यात्व है। अ-स्व में स्वबुद्धि का होना मिथ्यात्व है। मिथ्यात्वी का संसार भ्रमण कभी उच्छिन्न नहीं होता । वह मोहासक्त होकर अशुभ कर्मों का अर्जन करता है। उनसे दर्शन और ज्ञान आवृत होते हैं, आत्म-शक्ति ह्रास होता है और आत्मा अनुकूल पदार्थों से वियुक्त होती है। ज्ञान के तीव्र उदय से दर्शन का भी तीव्र उदय होता है। दर्शन के तीव्र उदय से दृष्टि का मोह प्रबल होता है। उससे फिर अशुभ कर्म की ओर प्राणी प्रवृत्त होता है । इस प्रकार : यह संसार-चक्र क्रमशः बढ़ता रहता है।
विनश्यति । क्षयं गते ॥
ज्ञानावरण और दर्शनावरण कर्म तथा शेष सभी कर्म मोहकर्म को उत्तेजित करने में निमित्त बनते हैं। इसलिए मोहकर्म सबमें प्रधान है और शेष सब कर्म उसी के परिवार हैं।
आत्म-अहित का मूल मिथ्यात्व है । चरित्र - मोह भी अहितकारी है, लेकिन इतना नहीं जितना कि दर्शन-मोह | यह विपरीत मान्यताओं का घर है। अज्ञान और अदर्शन आत्मा को विकृत नहीं करते। विकृत केवल मोह ही करता है। अन्य कर्म मोह की उत्तेजना में सहायक हो सकते हैं, लेकिन स्वयं वे आत्मा को विकृत नहीं बनाते ।
जिस प्रकार ताड़ की सूची- अग्रभाग नष्ट होने पर ताड़ नष्ट हो जाता है, उसी प्रकार मोहकर्म के क्षीण होने पर दूसरे कर्म क्षीण हो जाते हैं।
जिस प्रकार सेनापति के मारे जाने पर सेना पलायन कर जाती है, उसी प्रकार मोहकर्म के क्षीण होने पर दूसरे कर्म क्षीण हो जाते हैं।