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________________ संबोधि . १५७ अ. २ : सुख-दुःख मीमांसा ६८. सर्वेषां च मनुष्याणां, सुलभा जीविका भवेत्। उचित व्यवस्था होने पर सभी मनुष्यों को आजीविका सुलभ औचित्येन व्यवस्थायाः, कर्मवादो न दुष्यति॥ हो, तो इससे कर्मवाद के सिद्धांत में कोई दोष नहीं आता। ६९.दुर्वृत्तायां व्यवस्थायां, लोकः कष्टानि गच्छति। दुष्प्रवृत्त व्यवस्था में लोग दुःखी होते हैं और सत्प्रवृत्त सद्वृत्तायां व्यवस्थायां, लोको हि सुखमृच्छति॥ व्यवस्था में वे सुखी होते हैं। ७०.सुखदुःखे व्यवस्थाप्ये', नारोप्ये कर्मसु क्वचित्। सुखदुःखे च कर्माप्ये, व्यवस्थायाः शिरस्यपि॥ व्यवस्था से प्राप्त होने वाले सुख-दुःख को कर्म पर आरोपित नहीं करना चाहिए और कर्म से प्राप्त होने वाले सुखदुःख का भार व्यवस्था के सिर पर नहीं डालना चाहिए। ७१.प्रतिव्यक्तिविभिन्नास्ति, योग्यता स्वगुणात्मिका। ___ कर्मावरणमात्रायाः, तारतम्यविभेदतः॥ ७२. उपशान्तो भवेत् क्रोधः, मानं माया प्रलोभनम्। समीचीना व्यवस्था स्याद्, स्वातंत्र्यं स्यादबाधितम्॥ जैसे आत्मौपम्य का सिद्धांत मान्य है, वैसे ही व्यक्तिव्यक्ति में स्वगुणात्मक योग्यता की भिन्नता का सिद्धांत भी मान्य है। उसका आधार है कर्म के आवरण की मात्रा का तारतम्य। जब क्रोध, मान, माया और लोभ उपशांत होते हैं, तब व्यवस्था अच्छी होती है और सबकी स्वतंत्रता अबाधित रहती है। जब क्रोध, मान, माया और लोभ उत्तेजित होते हैं, तब व्यवस्था अच्छी नहीं रहती और परतंत्रता बढ़ती है। ७३. उत्तेजितो भवेत् क्रोधः, मानं माया प्रलोभनम्। व्यवस्थाप्यसमीचीना, पारतंत्र्यं प्रवर्धत॥ मेघः प्राह ७४.धन्योस्म्यहं कृतार्थोऽस्मि, संशयो मे निराकृतः। कर्मणश्च व्यवस्थायाः, स्पष्टो बोधोप्यजायत॥ मेघ बोला-भगवन् ! मैं धन्य हो गया हूं, कृतार्थ हो गया हूं। आपने मेरे संशय का निवारण किया है। कर्मवाद और व्यवस्था का बोध भी मुझे स्पष्ट हुआ है। ॥ व्याख्या ॥ कुछ स्थितियां व्यवस्थाजन्य होती हैं और कुछ कर्मजन्य होती हैं। इनका विवेक होना आवश्यक है। आज का व्यक्ति व्यवस्थाजन्य परिस्थितियों को कर्मजन्य मानकर उलझ जाता है, हताश होकर पुरुषार्थ से मुंह मोड़ लेता है। ऐसी स्थिति में वह अपने लिए नई समस्याएं पैदा कर लेता है। कुछ सुख-दुःख कर्म-जन्य होते हैं और कुछ व्यवस्थाजन्य। इनको एक-दूसरे पर आरोपित नहीं करना चाहिए। - जब सामाजिक व्यवस्था अच्छी नहीं होती तब प्रत्येक व्यक्ति दुःख पाता है और जब वह सुधर जाती है तब सब हैं। यह व्यवस्थापादित सख दःख की बात है। इसी प्रकार जब व्यक्ति-व्यक्ति का आत्म-विकास प्रगति पर होता है, क्रोध आदि दुर्गुणों का ह्रास होता है तब वे अच्छे समाज की रचना कर सकते हैं। दुर्गुणों के नाश की बात कर्मजन्य है। जब आंतरिक दोष कम होते हैं तब सामाजिक व्यवस्था अच्छी होती है और जब वे प्रबल होते हैं तब सामाजिक - व्यवस्था बुरी हो जाती है। यह स्पष्ट विवेक होना चाहिए कि क्रोध, मान, राग, द्वेष आदि कर्मजन्य दोष हैं। किन्तु उनकी अभिव्यक्ति
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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