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आत्मा का दर्शन १५६
खण्ड-३ ५९.अनन्तं नाम चैतन्यं, आनन्दश्चाप्यबाधितः। प्राणी मात्र में अनंत चैतन्य, अनाबाध आनंद और अप्रतिहत
अस्त्यप्रतिहता शक्तिः जीवमात्रे स्वरूपतः॥ शक्ति है। यह प्रत्येक आत्मा का स्वरूप है।
६०.कर्मभि व जीवेषु, कृतो भेदः स्वरूपतः।
स्वरूपावरणे भेदः, मात्राभेदेन तैः कृतः॥
कर्म जीवों के स्वरूप में भेद नहीं कर पाते। उनके द्वारा जीव के स्वरूपावरण में भेद होता है। वह भेद सबमें समान नहीं होता किन्तु मात्राभेद से होता है।
६१.अस्तित्वं भिद्यते नैव, तेनात्मौपम्यमर्हति।
व्यक्तावसौ भेदः नासौ भेदोस्ति वस्ततः॥
कर्म आत्मा के अस्तित्व में भेद नहीं कर पाते, अतः आत्मौपम्य वास्तविक है। अस्तित्व की अभिव्यक्ति में भेद होता है। इसलिए यह भेद वास्तविक नहीं है।
मेघः प्राह ६२.कथं त्वयाऽहमिन्द्राणां, सिद्धान्तः प्रतिपादितः?
यद्येष घटते तर्हि, कर्मवादो विलीयते॥
मेघ ने कहा-भगवन्! आपने अहमिन्द्र के सिद्धांत का प्रतिपादन कैसे किया? यदि यह सही है तो कर्मवाद विघटित हो जाता है।
॥ व्याख्या ॥ अहमिन्द्र-यह जैन परिभाषिक शब्द है। इसका शब्दार्थ है-मैं इन्द्र हूं। इसका तात्पर्य है-ऐसी व्यवस्था जहां सब समान हों, कोई छोटा-बड़ा न हो। सब अपने आपको एक-दूसरे के समान समझते हों।
जैन सिद्धांत में सबसे ऊंचे देवलोक का नाम है-'सर्वार्थसिद्ध'। वहां के सभी देव 'अहमिन्द्र' होते हैं। उनमें स्वामी-सेवक की व्यवस्था नहीं होती।
भगवान् प्राह ६३.स्वामिसेवकसंबंधः, व्यवस्थापादितो ध्रुवम्।
सामुदायिकसंबंधाः, सर्वे नो कर्मभिः कृताः॥
भगवान् ने कहा-मेघ! स्वामी-सेवक का संबंध व्यवस्था पर आधारित है। सभी सामुदायिक संबंध कर्मकृत नहीं होते।
६४.राजतंत्रे भवेद् राजा, गणतंत्रे गणाधिपः।
व्यवस्थामनुवर्तेत, विधिरेष न कर्मणः॥
राजतंत्र में राजा होता है और गणतंत्र में गणनायक। यह विधि कर्म के अनुसार नहीं, किन्तु व्यवस्था के अनुसार चलती
६५. दासप्रथा प्रवृत्तासौ, यदि कर्मकृता भवेत्।
तदा तस्या विरोधोऽपि, कथं कार्यो मया भवेत्॥
वत्स! यदि वर्तमान में प्रचलित दासप्रथा कर्मकृत हो तो मैं उसका विरोध कैसे कर सकता हूं?
६६.नासौ कर्मकृता वत्स!, व्यवस्थापादिता ध्रुवम्।
सामाजिक्या व्यवस्थायाः, परिवर्तोऽपि मे मतः॥
वत्स! यह दासप्रथा कर्मकृत नहीं है, किन्तु व्यवस्था-कृत है। सामाजिक व्यवस्था में परिवर्तन भी मझे मान्य है।
६७. देहधारणसामग्री, मीनानां सुलभा जले।
न तत्र बाधते कर्म, किं बाधेत तदा नरान् ?॥
मछलियों को अपने शरीर को धारण करने में सहायक सामग्री जल में सुलभ होती है। वहां कोई कर्म किसी को बाधित नहीं करता तो फिर मनुष्य के देह धारण की सामग्री मिलने में कर्म बाधक कैसे होगा?