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________________ ८७ उद्भव और विकास अ. २ : साधना और निष्पत्ति साहति। तत्थ य चारियत्ति रन्नो अत्थाणी-वर- दिया। उन्होंने महावीर को गुप्तचर समझ कर पकड़ लिया गतस्स उवट्ठाविता। और राजा के सम्मुख उपस्थित किया। सत्थ उप्पलो अट्ठियग्गामतो सो य पुव्वामेव वहां अस्थिकग्राम से उत्पल नैमित्तिक आया हुआ अतिगतो। था। उसका भगवान महावीर के साथ पहले से ही परिचय था। सो य ते आणिज्जते दळूण उठितो तिक्खुत्तो महावीर को देखते ही उत्पल ने उठकर तीन बार बंदति। पच्छा सो भणति-ण एस चारित्तो। एस । वंदना की और राजा से कहा-महाराज! ये गुप्तचर नहीं सिखत्थरायसुतो धम्मवरचक्कवट्टी। एस भगवं। हैं। सिद्धार्थ राजा के पुत्र हैं। धर्म चक्रवर्ती हैं। भगवान हैं। लक्खणाणि से पेच्छह। आप इनके लक्षण तो देखें। तत्थ सक्कारेऊण मुक्को। . राजा ने सारी बात जानकर उन्हें सत्कार सहित मुक्त कर दिया। ६९.ततो पुरिमतालं एति। महावीर पुरिमताल गए। ७०.ततो सामी उण्णागं वच्चति।. पुरिमताल से महावीर उन्नाग सन्निवेश में गए। ७१.ततो विहरंतो सामी गोभूमी' वच्चति। उन्नाग सन्निवेश से विहार कर महावीर गोभूमि गए। ७२. ततो विहरंता रायगिहं गता। तत्थ अट्ठमं गोभूमि से महावीर राजगृह नगर गए। वहां आठवां । वासारत्तं। चउम्मासखमणं। विचित्ते य अभिग्गहे। वर्षावास किया। चातुर्मासिक तप किया। विचित्र अभिग्रह . किए। साधना का नौवां वर्ष ७३. बाहिं पारेत्ता सरदे समतीए दिह्रतं करेति। सामी नगर के बाहर पारणा किया। शरदकाल का समय। चिंतेति-बहुं कम्मं ण सक्का णिज्जरेउं, ताहे महावीर ने चिंतन किया-मेरे बहुत से कर्म हैं। उनकी __सतमेव अत्यारियादिळंतं पडिकप्पेति। निर्जरा सहज संभव नहीं है। ऐसे सोच महावीर ने स्वयं दृष्टांत का अनुचिंतन किया| जहा एगस्स कुटुंबियस्स साली जाता। ताहे सो एक कृषक के खेत में चावल हुए। उसने राह गुजरते कप्पडियपंथए भणति-तुब्धं हि इच्छितं भत्तं देमि, कार्पटिकों से कहा-मैं तुम्हें इच्छित पारिश्रमिक दूंगा तुम मम लुणह। पच्छा भे जहासुहं वच्चह। इस खेत को काट दो फिर तुम्हारी इच्छा हो वहां चले जाना। एवं सो ओवातेण लुणावेति। इस उपाय से उसने राह चलते कार्पटिकों से खेत कटवा लिया। एवं चेव ममवि बहुं कम्मं अच्छति। एतं इसी प्रकार मेरे भी बहुत से कर्म हैं। मुझे भी अनार्य तऽच्छारिएहिं णिज्जरावेयव्वंति य अणारियदेसेसु। देश में जाकर दूसरे लोगों के निमित्त से अपने कर्मों का निर्जरण करना चाहिए। १. वहां सघन जंगल था। सदा गाएं चरती थीं। इसलिए उसे गोभूमि कहा गया।
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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