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आत्मा का दर्शन
लाढदेश में विहार
ता लाढावज्जभूमिं सुद्धभूमिं च वच्चति । ते णिरणुकंपा णिया य । तत्थ विहरितो । तत्थ सो अणारिओ जो हीलति निंदति ।
तदा य किर वासारत्तो। तंमि जणवए केणइ दइवनिओगेण लेहट्ठो आसी । वसहीवि न लब्भति । तत्थ य छम्मासे अणिच्चजागरियं विहरति ।
एस नवमो वासारत्तो ।
तिल का पौधा
७४. ततो निम्गता पढमसरयदे | सिद्धत्थपुरं गता ।
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सिद्धत्थपुराओ य कुंमागामं संपत्थिया । तत्थ अंतरा एगो तिलथंभओ । तं दद्रूणं गोसालो भणति - भगवं । किं एस तिलथंभओ निप्फज्जिहिति नवत्ति ?
सामी भइ - निप्फज्जिही । एते य सत्तपुप्फजीवा ओद्दात्ता एतस्सेव तिलथंभस्स एगाए सिंबलियाए पच्चायाहिंति ।
तेण असहहंतेण अवक्कमित्ता सलेठुओ उप्पाडितो । एगंते य एडिओ। ........ तक्खणमेत्तं ....... दिव्वे अब्भवद्दले पाउब्भूए । तए णं से दिव्वे अब्भवद्दले खिप्पामेव पतणतणाति, खिप्पामेव पविज्जुयाति, खिप्पामेव नच्चोदगं णातिमटियं पविरलप्फुसिय रयरेणुविणासणं दिव्वं सलिलोदगं वासं वासति । जे से तिलथंभ आसत्थे पच्चायते बद्धमूले, तत्थेव पतिट्ठिए।
ते य सत्त तिलपुप्फजीवा उद्दाइत्ता- उद्दाइत्ता तस्सेव तिलथंभगस्स एगाए तिलसंगलियाए सत्त तिला पच्चायाता ।
यह सोच महावीर लाढ़देश की वज्रभूमि और सुम्ह भूमि में गए। वहां के लोग निरनुकंप और निर्दयी थे। महावीर वहां विहार करते। अनार्य लोग उनकी हेलना - निंदा करते ।
साधना का दसवां वर्ष
वहां चातुर्मास का समय आ गया। उस जनपद में उन्हें रहने का कहीं स्थान नहीं मिला । वृक्षों के नीचे रहे। वहां छह महीने तक अनित्य जागरिका का प्रयोग किया।
यह महावीर का नवां वर्षावास था।
खण्ड - २
लादेश से निकल कर प्रथम शरदकाल में महावीर सिद्धार्थपुर में आए।
सिद्धार्थपुर से कुर्मग्राम की ओर प्रस्थान किया। मार्ग में एक तिल का पौधा था। गोशालक ने उसे देख पूछा-भगवन् ! यह तिल का पौधा निष्पन्न होगा या नहीं ?
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महावीर ने कहा- यह निष्पन्न होगा। इस पौधे पर लगे सात फूलों के जीव मरकर इसी पौधे की एक फली में पैदा होंगे।
महावीर के वचनों पर अश्रद्धा करते हुए गोशालक ने जड़ सहित पौधे को उखाड़ा और एकान्त में फेंक दिया। उसी समय आकाश में दिव्य बादल आए।
बादल गरजे । बिजलियां कौंधीं। शीघ्र ही वर्षा शुरू हो गई। न अधिक पानी बहा, न अधिक कीचड़ हुआ । रजों और धूलिकणों को जमाने वाली बूंद बूंदी हुई।
उससे तिलस्तंभ का रोपण हुआ। वह अंकुरित हुआ, बद्धमूल हुआ और वहीं पर प्रतिष्ठित हो गया ।
तिलपुष्प के वे सात जीव मरकर उसी तिलस्तंभ की एक फली में सात तिलों के रूप में उत्पन्न हो गए ।
१. आचारांग सूत्र में सुद्धभूमि के स्थान पर सुब्भभूमि पाठ मिलता है, इसलिए अनुवाद में सुम्हभूमि रखा गया है।