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________________ आत्मा का दर्शन . ७४० खण्ड-५ ६६६. पाडुब्भवदि य अन्नो, द्रव्य की अन्य (उत्तरवर्ती) पर्याय उत्पन्न (प्रकट) __पज्जाओ पज्जाओ वयदि अन्नो। होती है और कोई अन्य (पूर्ववर्ती) पर्याय नष्ट (अदृश्य) दव्वस्स तं पिदव्वं, हो जाती है। फिर भी द्रव्य न तो उत्पन्न होता है और न णेव पणठंणेव उप्पन्नं॥ नष्ट होता है-द्रव्य के रूप में सदा ध्रुव (नित्य) रहता है। ६६७. पुरिसम्मि पुरिससहो, ___ जम्माई-मरण-काल-पज्जन्तो। तस्स उ बालाईया, पज्जव-जोया बहुवियप्पा॥ पुरुष में पुरुष का व्यवहार जन्म से लेकर मरण तक होता है। परन्तु इसी बीच बचपन-बुढ़ापा आदि अनेक पर्यायें उत्पन्न हो-होकर नष्ट होती जाती हैं। ६६८. तम्हा वत्थूणं चिय, जो सरिसो पज्जवोस सामन्नं। जो विसरिसो विसेसो, समओऽणत्थंतरं तत्तो॥ (अतः) वस्तुओं की जो सदृश पर्याय-दीर्घकाल तक बनी रहनेवाली समान पर्याय है, वही सामान्य है और उनकी जो विसदृश पर्याय है वह विशेष है। ये दोनों पर्याय उस वस्तु से अभिन्न (कथंचित्) मानी गयी हैं। ६६९. सामन्नं अह विसेसे दव्वे गाणं हवेह अविरोहो। साहइ तं सम्मत्तं, णह पुण तं तस्स विवरीयं॥ सामान्य तथा विशेष इन दोनों धर्मों से युक्त द्रव्य में होनेवाला अविरोध ज्ञान ही सम्यक्त्व का साधक होता है। उसमें विपरीत ज्ञान साधक नहीं होता। ६७०. पिउ-पुत्त-णत्तु-भव्वय-भाऊणं एग-पुरिससंबंधो। णय सो एगस्स पिय, त्ति सेसयाणं पिया होइ॥ एक ही पुरुष में पिता, पुत्र, पौत्र, भानेज, भाई आदि अनेक संबंध होते हैं। परंतु एक का पिता होने से वह सबका पिता नहीं होता। (यही स्थिति सब वस्तुओं की है।) ६७१. सवियप्प-णिवियप्पं इय, पुरिसं जो भणेज्ज अवियप्पं। सवियप्यमेव वा णिच्छएण, __ण स निच्छओ समए॥ निर्विकल्प तथा सविकल्प उभयरूप पुरुष को जो केवल निर्विकल्प अथवा.सविकल्प (एक ही) कहता है, उसकी मति निश्चय ही शास्त्र में स्थिर नहीं है। ६७२. अन्नोन्नाणुगयाणं 'इमं व तं वत्ति विभयण-मजुत्तं। ____जह दुद्ध-पाणियाणं, जावंत विसेस-पज्जाया॥ - दूध और पानी की तरह अनेक विरोधी धर्मों द्वारा परस्पर घुले-मिले पदार्थ में 'यह धर्म' और 'वह धर्म' का विभाग करना उचित नहीं है जितनी विशेष पर्याय हों, उतना ही अविभाग समझना चाहिए। ६७३. संकेज्ज याऽसंकित-भाव भिक्खू, विभज्जवायं च वियागरेज्जा। भासाद्गं धम्मसमुदिठतेहिं, वियागरेज्जा समया सुपन्ने॥ सूत्र और अर्थ के विषय में शंकारहित साधु भी गर्वरहित होकर स्याद्वादमय वचन का व्यवहार करे। धर्माचरण में प्रवृत्त साधुओं के साथ विचरण करते हुए सत्यभाषा तथा व्यवहार भाषा का प्रयोग करे। धनी या निर्धन का भेद न करके समभावपूर्वक धर्म-कथा कहे।
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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