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उद्भव और विकास ५५.तं दळूण पवत्तोऽलंकारेउं जणोऽवि सेसोऽवि। - विहिणा चूलाकम्मं बालाणं चोलयं नाम॥
३१ अ. ३ : आदिम युग : अर्हत् ऋषभ
उसे देखकर लोगों में भी अलंकार की प्रवृत्ति प्रारंभ हुई। बच्चों के चूलाकर्म का भी उसी समय में प्रवर्तन
हुआ।
५६. दटुं कयं विवाह
जिणस्स लोगोऽवि काउमारयो।। गुरुदत्तिया य कन्ना
परिणिज्जते ततो पायं॥
सर्वप्रथम ऋषभ का विवाह हुआ। उस पद्धति के आधार पर प्रजा में भी विवाह का प्रचलन हो गया। प्रायः गुरुजनों द्वारा प्रदत्त कन्या के साथ ही विवाह किया जाता।
५७.मइयं मयस्स देहो तं मरुदेवीए पढमसिद्धोत्ति।
देवेहि पुरा महियं झावणया अग्गिसक्कारो॥
मरुदेवा प्रथम सिद्ध हुई। देवों ने सबसे पहले उनकी देह का दाहसंस्कार किया। फिर वह मृतककर्मदाहसंस्कार विधि प्रजा में प्रचलित हो गई।
५८.सो जिणदेहाई णं देवेहिं कतो चिआसु थूभा य। . सहो य रुण्णसहो लोगोवि ततो तहा पकतो॥
भगवान् की देह को सिद्ध होने पर देवों ने चिता में जलाया और उनकी स्मृति में वहां स्तूप बनाकर रुदन करने लगे। तब से लोगों में मृतक के पीछे रोने की प्रवृत्ति प्रारंभ हो गई।
नैमित्तिकों से सुख-दुःख के विषय में पृच्छा भी ऋषभ के समय में की जाने लगी।
५९. अहव निमित्ताईणं
सुहसझ्याइ सुहदुक्खपुच्छा वा। इच्चेवमाझ्याए
उप्पन्नं उसमकालम्मि॥
६०.किंचिंच भरकाले
कुलगरकालेऽवि किंचि उप्पन्न। पहुणा उ देसिया
सव्वकलासिप्पकम्माई॥
इनमें से कुछ बातों का प्रवर्तन भरत के समय में हुआ और कुछ का कुलकर के समय में। इस प्रकार सभी प्रकार की कला, शिल्प और कर्म का उपदेश ऋषभ ने दिया।