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प्रायोगिक दर्शन
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वंदित्ता -नमंसित्ता एवं वयासी-अत्थि णं भंते! जीवाणं पावा कम्मा पावफलविवागसंजुत्ता कज्जंति ? हंता अत्थि ।
२४. कहण्णं भंते! जीवाणं पावा कम्मा पावफलविवागसंजुत्ता कज्जंति ?
कालोदाई ! से जहानामए केइ पुरिसे मणुण्णं थालीपागसुद्धं अट्ठारसवंजणाकुलं विससंमिस्सं भोयणं भुंजेज्जा, तस्स णं भोयणस्स आवाए भद्दए भवइ । तओ पच्छा परिणममाणे- परिणममाणे दुरूवत्ताए दुवण्णत्ताए, दुगंधत्ताए जाव दुक्खत्ताएनो सुहत्ताए भुज्ज़ो - भुज्जो परिणमति ।
एवामेव कालोदाई ! जीवाणं पाणाइवाए जाव मिच्छादंसणसल्ले, तस्स णं आवाए भद्दए भवइ, तओ पच्छा विपरिणममाणे विपरिणममाणे दुरूवत्ताए दुवण्णत्ताए दुगंधत्ताए - जाव दुक्खत्ताएनो सुहत्ताए भुज्जो - भुज्जो परिणमति । एवं खलु 'कालोदाई ! जीवाणं पावा कम्मा पावफलविवागजुत्ताकति ।
२५. अत्थि णं भंते! जीवाणं कल्लाणा कम्मा कल्लाण- फलविवागसंजुत्ता कज्जंति ? हंता अत्थि ।
२६. कहणं भंते! जीवाणं कल्लाणं कम्मा कल्लाणफलविवागसंजुत्ता कज्जति ?
कालोदाई ! से जहानामए केइ पुरिसे मणुण्णं थालीपागसुद्धं अट्ठारसवंजणाकुलं ओसहमिस्सं भोयणं भुंजेज्जा । तस्स णं भोयणस्स आवाए नो भe भवइ, तओ पच्छा परिणममाणे- परिणममाणे सुरुवत्ताए सुवण्णत्ताए जाव सुहत्ता-नो दुक्खत्ता भुज्जो भुज्जो परिणमति ।
एवामेव कालोदाई ! जीवाणं पाणाइवायवेरमणे जाव परिग्गहवेरमणे कोहविवेगे जाव मिच्छादंसणसल्लविवेगे, तस्स णं आवाए नो भइए भवइ, तओ
हां, देते हैं।
अ. १३ : कर्मवाद
भंते! जीवों के पापकर्म पाप का फलविपाक कैसे देते
हैं ?
कालोदायी! जैसे पुरुष मिट्टी की हांडी में पकाया हुआ मनोज्ञ, अठारह प्रकार के व्यञ्जनों से युक्त विषमिश्रित भोजन करता है। वह भोजन आपातभद्र-प्रारम्भ में अच्छा होता है। उसके पश्चात् जब वह अपने अन्तर्निहित नियम से परिणत होता है, तब उसके रूप, वर्ण, गंध आदि विकृत बन जाते हैं और वह दुःखद होता है, सुख देनेवाला नहीं होता ।
कालोदायी ! इसी प्रकार प्राणातिपात से लेकर मिथ्यादर्शनशल्य तक अठारह ही पाप आपातभद्रप्रवृत्तिकाल में अच्छे लगते हैं। पर जब वे अपने अन्तर्निहित नियम से विपरिणत होते हैं, तब उनके रूप, वर्ण, गंध आदि विकृत बन जाते हैं। वह दुःखद होता है, सुख देनेवाला नहीं । कालोदायी! इस प्रकार जीवों के पापकर्म पाप फलविपाक देते हैं।
भंते! जीवों के कल्याण कर्म कल्याण फलविपाक देते
हैं ?
हां, देते हैं।
भंते! जीवों के कल्याण कर्म कल्याण फलविपाक कैसे देते हैं ?
कालोदायी! जैसे कोई पुरुष मिट्टी की हांडी में पकाया हुआ मनोज्ञ, अठारह प्रकार के व्यञ्जनों से युक्त, औषध (सूंठ, लवंग आदि) मिश्रित भोजन करता है, वह भोजन प्रारम्भ में अच्छा नहीं होता है। उसके पश्चात् जब वह अपने अन्तर्निहित नियम से परिणत होता है, तब उसके रूप, वर्ण आदि अविकृत होते हैं। वह सुखद होता है। दुःख देनेवाला नहीं होता।
कालोदायी ! इसी प्रकार प्राणातिपात विरमण यावत् परिग्रह विरमण, क्रोध विवेक यावत् मिथ्यादर्शनशल्य विवेक अपने प्रवृत्तिकाल में अच्छे नहीं लगते हैं। पर जब वे