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आत्मा का दर्शन
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खण्ड-४
पच्छा परिणममाणे-परिणममाणे सुरूवत्ताए सुवण्ण- अपने अन्तर्निहित नियम से परिणत होते हैं, तब उनके रूप, ताए जाव सुहत्ताए-नो दुक्खत्ताए भुज्जो-भुज्जो वर्ण आदि अविकृत होते हैं। वह सुखद होता है, दुःख परिणमइ। एवं खलु कालोदाई! जीवाणं कल्लाणा देनेवाला नहीं होता। कालोदायी! इसी प्रकार जीवों के कम्मा कल्लाणफलविवागसंजुत्ता कज्जति। कल्याण कर्म कल्याण फलविपाक देते हैं।
कर्म की अवस्थाएं २७.बंधणसंकमणुव्वट्टणा य
जीव के परिणाम से कर्मस्कंधों में विशेष प्रकार की अववट्टणा उदीरणया। व्यवस्था होती है, उसका नाम है करण। वे आठ हैं:-१. उवसामणा निहत्ती
बन्धन, २. संक्रमण, ३. उद्वर्तना, ४. अपवर्तना, ५. निकायणा च त्ति करणाइं॥ उदीरणा, ६. उपशामना, ७. निधत्ति, ८. निकाचना।
२८.चउब्विहे बंधे पण्णत्ते, तं जहा
१. पगति बंधे २. ठितिबंधे ३. अणुभावबंधे ४.पदेसबंधे।
बन्ध के चार प्रकार प्रज्ञाप्त हैं१. प्रकृति बन्ध २. स्थिति बन्ध ३. अनुभाव बन्ध ४. प्रदेश बन्ध।
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२९.चउविहे उवक्कमे पण्णत्ते, तं जहा
१. बंधणोवक्कमे २. उदीरणोवक्कम ३. उवसमणोवक्कमे ४. विप्परिणामणोवक्कमे।
उपक्रम के चार प्रकार प्रज्ञप्त हैं- १.बन्धन उपक्रम २. उदीरणा उपक्रम ३. उपशमन उपक्रम ४. विपरिणामन उपक्रम। .
३०.बंधणोवक्कमे चउबिहे पण्णत्ते, तं जहा
१. पगतिबंधणोवक्कमे २. ठितिबंधणोवक्कमे ३. अणुभावबंधणोवक्कमे ४. पदेसबंधणोवक्कमे।
बंधन उपक्रम के चार प्रकार प्रज्ञाप्त है१. प्रकृति बन्धन उपक्रम २. स्थिति बन्धन उपक्रम ३. अनुभाव बन्धन उपक्रम ४. प्रदेश बन्धन उपक्रम।
३१.उदीरणोवक्कमे चउविहे पण्णत्ते, तं जहा
१. पगतिउदीरणोवक्कमे २. ठितिउदीरणोवक्कमे
३. अणुभावउदीरणोवक्कमे १.१. बन्धन-आत्म प्रदेशों के साथ कर्म पुद्गलों का संबंध।
२. संक्रमण-कर्म की एक सजातीय प्रकृति का दूसरी सजातीय प्रकृति में बदल जाना। ३. उद्वर्तना-कर्म की स्थिति और अनुभाग में वृद्धि होना। ४. अपवर्तना-कर्म की स्थिति और अनुभाग में हास होना। ५. उदीरणा-जो कर्म उदयावलिका में प्रविष्ट नहीं हैं, उन्हें प्रयत्न द्वारा उदयावलिका में लाना। ६.उपशामना-स अवस्था में
उदीरणा उपक्रम के चार प्रकार प्रज्ञप्त है१. प्रकृति उदीरणा उपक्रम २. स्थिति उदीरणा उपक्रम ३. अनुभाव उदीरणा उपक्रम उदय, उदीरणा, निपत्ति और निकाचना नहीं होते। .. निपत्ति-कर्म का निवेचन। इस अवस्था में उद्वर्तना,
अपवर्तना के अतिरिक्त शेष करण नहीं होते। ८. निकाचना-यह कर्मबन्धन की गाड़तम अवस्था है। इस
अवस्था में कोई करण नहीं होता। . २. कर्म बंधन आदि का हेतुभूत वीर्य उपक्रम कहलाता है।