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आत्मा का दर्शन
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खण्ड-8
१९.जहा णं भंते! वत्थस्स णं पोग्गलोवचए पयोगसा भंते! जैसे वस्त्र के पुद्गलों का उपचय प्रयोग से भी
वि, वीससा वि, तहा णं जीवाणं कम्मोवचए किं होता है. स्वभाव से भी होता है, वैसे ही जीवों के कर्मों का पयोगसा? वीससा?
उपचय प्रयोग से होता है अथवा स्वभाव से? गोयमा! पयोगसा, नो वीससा।
गौतम ! जीवों के कर्मों का उपचय प्रयोग से होता है,
स्वभाव से नहीं। से केणठेणं?
भंते! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है? गोयमा! जीवाणं तिविहे पयोगे पण्णत्ते, तं जहा- गौतम! जीवों के तीन प्रकार के प्रयोग प्रज्ञप्त हैं मणप्पयोगे, वइप्पयोगे, कायप्पयोगे। इच्चेएणं जैसे-मन का प्रयोग, वचन का प्रयोग और शरीर का तिविहेणं पयोगेणं जीवाणं कम्मोवचए पयोगसा, नो प्रयोग। इस त्रिविध प्रयोग से जीवों के कर्म का उपचय वीससा।
प्रयोग से होता है, स्वभाव से नहीं होता। से तेणठेणं गोयमा! एवं वुच्चइ-जीवाणं गौतम ! इस अपेक्षा से कहा जा रहा है कि जीवों के कर्म कम्मोवचए पयोगसा, नो वीससा।
का उपचय प्रयोग से होता है, स्वभाव से नहीं होता।
कर्मों की प्रकृतियां और उनके दृष्टांत २०.नाणस्सावरणिज्जं दंसणावरणं तहा। कर्म की मूल प्रकृतियां आठ हैंवेयणिज्ज तहा मोहं आउकम्मं तहेव य॥ १. ज्ञानावरणीय २. दर्शनावरणीय :
३. वेदनीय
४. मोहनीय २१.नामकम्मं च गोयं च अंतरायं तहेव य। ५. आयुष्य ६. नाम
एवमेयाइ कम्माई अठेव उ समासओ॥ ७. गोत्र . ८. अंतराय
२२.पड परिहारसिमज्जा
ज्ञानावरणीय कर्म पट्ट के समान, दर्शनावरणीय कर्म हडि चित्त कुलाल भंडयारीणं। प्रतिहार के समान, वेदनीय कर्म मधुलिप्स तलवार के समान, जह ऐदसिं भावा
मोहनीय कर्म मद्यपान के समान, आयुष्य कर्म खोड़े के तह वि य कम्मा मुणेयव्वा॥ समान, नामकर्म चित्रकार के सम्रान, गोत्रकर्म कुंभकार के
समान और अंतराय कर्म कोषाध्यक्ष के समान है।
कर्मों के फल विपाक की प्रक्रिया २३.तए णं से कालोदाई अणगारे अण्णया कयाइ एक दिन कालोदायी अनगार श्रमण भगवान महावीर के
जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छति, पास आया। वंदन-नमस्कार किया और बोला-भंते! जीवों
उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं वंदइ-नमंसइ, के पापकर्म क्या पापफलविपाक देते हैं? १. आठ कर्मों को आठ दृष्टांतों द्वारा समझाया गया है। पर्दा जाती है। जैसे खोडे में डाला हुआ व्यक्ति बंधा हुआ
जैसे देखने से रुकावट डालता है, वैसे ही ज्ञानावरणीय रहता है, वैसे ही जीवन आयुष्य कर्म से बंधा रहता है। कर्म ज्ञान का आवरण है। द्वारपाल जैसे बाहर से आने चित्रकार जैसे चित्रों का निर्माण करता है, वैसे ही वाले को रोक देता है, वैसे ही दर्शनावरणीय कर्म दर्शन- नामकर्म से शरीर, शरीर के अवयव आदि का निर्माण समान्य अवबोध को रोकता है। जैसे कोई मधुलिप्त होता है। कुंभकार जैसे छोटे-बडे घडों का निर्माण करता तलवार को चाटता है। मधु मीठा लगता है उसके समान है, वैसे ही गोत्रकर्म से व्यक्ति छोटा बडा बनता है। जैसे सातवेदनीय और जीभ कट जाती है, उसके समान कोषाध्यक्ष के दिए बिना वस्तु नहीं मिलती, वैसे ही असातवेदनीय है। मद्यपान से जैसे व्यक्ति मूर्छा में चला अंतराय कर्म दूर हुए बिना प्राणी को वीर्य शक्ति प्राप्त जाता है, वैसे ही मोहनीय कर्म से चेतना विकृत बन नहीं होती।