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________________ ८५ अ. २ : साधना और निष्पत्ति उद्भव और विकास जोगोवगतेणं, पाईणगामिणीए छायाए वियत्ताए पोरिसीए, जंभियगामस्स णगरस्स बहिया णईए उजुवालिया उत्तरे कूले, सामागस्स गाहावइस्स कट्ठकरणंसि, वेयावत्तस्स चेइयस्स उत्तरपुरत्थिमे दिसीभाए, सालरुक्खस्स अदूरसामंते, उक्कुड्यस्स, गोदोहियाए आयावणाए आयावेमाणस्स, छठेणं भत्तेणं अपाणएणं, उड्ढंजाणुअहोसिरस्स, धम्मज्झाणोवगयस्स झाणकोट्ठोवगयस्स, सुक्कज्झाणंतरियाए' वट्टमाणस्स, निव्वाणे, कसिणे, पडिपुण्णे, अव्वाहए, णिरावरणे, अणंते, अणुत्तरे, केवलवरणाण-दसणे समुप्पण्णे। से भगवं अरिहं जिणे जाए, केवली सव्वण्णू ... सव्वभावदरिसी, सदेवमणुयासुरस्स लोयस्स - पज्जाए जाणइ, तं जहा-आगतिं गतिं ठितिं चयणं .. उववायं भुत्तं पीयं कडं पडिसेवियं आवीकम्म रहोकम्म लवियं कहियं मणोमाणसियं सव्वलोए सव्वजीवाणं सव्वभावाइं जाणमाणे पासमाणे, एवं : चणं विहरह। .. ऋजुबालिका नदी का उत्तरी तट। श्यामाक गृहपति का खेत। व्यावृत्त चैत्य का ईशानकोण। शालवृक्ष से न अति दूर न अति निकट। महावीर पहले उत्कटुक आसन में बैठे, फिर गोदोहिका मुद्रा में आतापन। दो दिन का निर्जल उपवास। ऊपर की ओर उठे हुए घुटने। नीचे की ओर झुका हुआ मस्तक। धर्मध्यान में लीन। ध्यानकोष्ठक में प्रविष्ट। शुक्ल ध्यान की अंतरिका में वर्तमानएकत्ववितर्क ध्यान में लीन। उस स्थिति में भगवान महावीर को निर्वाणदायी, कृत्स्न, प्रतिपूर्ण, अव्याहत, निरावरण, अनन्त, अनुत्तर, केवलज्ञान और केवलदर्शन उत्पन्न हुआ। ___भगवान अर्हत्, जिन, केवली, सर्वज्ञ और सर्वभावदर्शी हो गए। वे देव, मनुष्य और असुरलोक की सब पर्यायों को जानने लगे, जैसे-आगति, गति, स्थिति, च्यवन, उपपात, खान-पान, कृत, प्रतिसेवित, प्रकटकर्म, रहस्यकर्म, आलाप, कथन, अंतर्मन के भाव। संपूर्ण लोक में विद्यमान सब जीवों के सब भावों को जानते-देखते हुए विहरण करने लगे। धर्मोपदेश १२१. तओ णं समणे भगवं महावीरे उप्पण्ण णाणसणधरे अप्पाणं च लोगं च अभिसमेक्ख पुव्वं देवाणं धम्ममाइक्खति, तओ पच्छा मणुस्साणं। केवलज्ञान और केवल दर्शन के धारक श्रमण भगवान महावीर ने ज्ञान के आलोक में अपने आपको एवं जगत को भलीभांति देखा। उन्होंने पहले समवसरण में धर्म का निरूपण किया। उस परिषद् में केवल देव विद्यमान थे। दूसरे समवसरण में मनुष्यों को धर्म का उपदेश दिया। ___ केवलज्ञान और केवलदर्शन के धारक श्रमण भगवान महावीर ने गौतम आदि श्रमण निग्रंथों के मध्य पांच महाव्रतों, उनकी पच्चीस भावनाओं तथा छह जीवनिकाय का आख्यान किया। - तो गं समणे भगवं महावीरे उप्पण्णणाण दंसणधरे गोयमाईणं समणाणं णिग्थाणं पंच महत्वयाइं सभावणाई छज्जीवनिकायाई आइक्खइ . भासइ परूवेइ। १२२. सव्व जगजीव-रक्खणदयट्ठयाए पावयणं भगवया सुकहियं। जगत् के सब जीवों की रक्षा और दया के लिए भगवान महावीर ने प्रवचन किया। १. एकत्तवितक्कं वोलीणस्स, आवचू. १, पृ. ३२३
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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