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संबोधि
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अ. ८ : बंध- मोक्षवाद
गुणस्थान' चौदह हैं। गुणस्थान है-आत्मा के क्रमिक विकास का पथ अविकास का कारण है-कर्म गीता की दृष्टि में प्रकृति । प्रकृति की तीन अवस्थाएं हैं-सत्त्व, रज और तम तीनों की अतीत अवस्था है गुणातीत । कारण शरीर मूल है। इसी के कारण स्थूल शरीर का निर्माण होता है। गुणातीत अवस्था में कारण शरीर की भी समाप्ति हो जाती है। जैसे-जैसे साधक साधना की उच्च अवस्था में या ध्यान की गहराई में आगे से आगे आरूढ होता रहता है वैसे-वैसे उसका मोह क्षय होता चला जाता है और वह पूर्ण विशुद्ध दशा में स्थित हो जाता है।
मोह आत्मा को विकृत करता है उसके राग और द्वेष- ये दो रूप हैं। इन दोनों के चार रूप बनते हैं-क्रोध, अहंकार, माया और लोभ गुणस्थानों के आरोहण में क्रमशः ये शिथिल व नाम शेष होते चल जाते हैं ग्यारहवें गुणस्थान में इनका संपूर्ण उपशमन होता है, नाश नहीं होता। बारहवें में संपूर्ण विलय-क्षय हो जाता है।
२७. अमनोज्ञसमुत्पादः, दुःखं भवति समुत्पादमजनाना, न हि जानन्ति
देहिनाम् । संवरम् ॥
२८. रागो द्वेषश्च तद्धेतुः, वीतरागदशा सुखम् । रत्नत्रयी च तद्धेतुः एष योगः समासतः ॥
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अमनोज्ञ स्थिति का समुत्पाद/ उत्पत्ति दुःख है जो इस समुत्पाद को नहीं जानते, वे संवर दुःख निरोध को भी नहीं जानते।
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२९. भद्रं भद्रं तीर्थनाथ ! तीर्थे नीतोऽस्म्यहं त्वया । भावितात्मा स्थितात्मा च त्वया जातोऽस्मि सम्प्रति ॥
दुःख के हेतु हैं - राग और द्वेष | वीतराग दशा सुख है और उसका हेतु है -रत्नत्रयी- सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक्चारित्र । योग का यह मैंने संक्षिप्त निरूपण किया है।
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|| व्याख्या ||
भगवान् महावीर ने कहा- जन्म दुःख है, बुढ़ापा दुःख है, रोग दुःख है और मृत्यु दुःख है। यह संसार ही दुःख है, जहां प्राणी क्लेशों को प्राप्त होते हैं। जरा, रोग, मृत्यु और अप्रिय वस्तुओं का संयोग दुःख है। व्यक्ति दुःखों के कारणों को जान लेने पर ही दुःख मुक्ति की ओर अग्रसर होता है। दुःख मुक्ति का उपाय है-संवर (निवृत्ति) अकर्म के बिना दुःख का निरोध नहीं होता । दुःखोत्पन्न करने वाली मूल प्रवृत्तियां हैं रागात्मक और द्वेषात्मक इनका न होना सुख है। सुख की प्राप्ति के लिए रत्नत्रयी का आलंबन अपेक्षित है। सम्यग्दर्शन, सम्यग् ज्ञान और सम्यग् चारित्र - यह रत्नत्रयी है। तीनों आत्मा के गुण हैं और आत्मा के निकटतम सहचारी है। आत्मा का निश्चय सम्यग् दर्शन, आत्मा का बोध सम्यग् ज्ञान और आत्म-स्थिरता सम्यग् चारित्र है।
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महात्मा बुद्ध के चार आर्य सत्य हैं-दुःख, दुःख समुदाय, दुःख निरोध और दुःख निरोध का उपाय। दुःख समुदाय में भगवान् बुद्ध ने बावश निदान बताये हैं। द्वादश निदान का निरोध दुःख निरोध है भगवान् महावीर की दृष्टि में राग और द्वेष का निरोध ही दुःख का अवसान है दुःख निरोध का उपाय भगवान् बुद्ध की दृष्टि में अष्टांगिक मार्ग है और भगवान् महावीर की दृष्टि में रत्नत्रयी है। बुद्ध कहते हैं-चार आर्य सत्यों के ज्ञान से निर्वाण होता है। भगवान् महावीर कहते हैं - रत्नत्रयी के ज्ञान और अनुसरण से मुक्ति होती है। मेघः प्राह
मेघ बोला हे तीर्थनाथ! अच्छा हुआ, बहुत अच्छा हुआ। आपके प्रसाद से मैं तीर्थ में आ गया हूं और आपके अनुग्रह से मैं अब भावितात्मा और स्थितात्मा हो गया
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व्याख्या ॥
मोह का निरसन मोह से नहीं होता। अज्ञान का अंधकार ज्ञान की ज्योति के सामने क्षीण हो जाता है। खून से सना वस्त्र खून से शुद्ध नहीं होता। ममत्व का आवरण निर्ममत्व से हटता है। बंध से बंध का क्षय नहीं होता। भगवान् महावीर .से दुःख, दुःख - मुक्ति का उपाय, बंध, मोक्ष, अहिंसा आदि का विशद विवेचन सुन मेघ की निमीलित आंखें खुल गयीं। वह सचेतन हो गया। मोह का आवरण हटने लगा। ज्ञान के प्रकाश के सामने तम नष्ट हो गया। मेघ के लड़खड़ाते पैर पुनः स्थिर हो गए। उसने अपने हृदय की गांठ भगवान् के सामने खोल दी।