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________________ आत्मा का दर्शन २३८ खण्ड:३ ३०. नष्टो मोहो गतं क्लैव्यं, शुद्धा बुद्धिः स्थिरं मनः। अब मेरा मोह नष्ट हो गया है, क्लैव्य चला गया है, बुद्धि पुनर्मोनं तवाभ्यर्णे, स्वीचिकीर्षामि साम्प्रतम्॥ शुद्ध हो गयी है और मन स्थिर बन गया है। अब मैं पुनः आपके पास श्रामण्य स्वीकार करना चाहता हूं। ३१.प्रायश्चित्तञ्च वाञ्छामि, पूर्वमालिन्यशद्धये। चेतः समाधये भूयः, कामये धर्मदेशनाम्॥ पहले जो मेरे मन में कलुष भाव आया, उसकी शुद्धि के लिए मैं प्रायश्चित्त करना चाहता हूं और चित्त की समाधि के लिए आपसे पुनः धर्म-देशना सुनना चाहता हूं। ॥ व्याख्या ॥ मेघकुमार का मन श्रामण्य के पहले ही दिन कुछेक तात्कालिक कारणों से अस्थिर हो गया। वह घर जाने के लिए तत्पर होकर भगवान् महावीर के पास आया और अपनी सारी भावना उनके सामने रखी। भगवान् महावीर ने उसके मानस को पढ़ा, उतार-चढ़ाव पर ध्यान दिया और उसे श्रामण्य में पुनः प्रतिष्ठापित करने के लिए प्रतिबोध दिया। . भगवान् की वाणी सुन मेघकुमार का आत्म-चैतन्य जगमगा उठा। उसने दुःख, दुःख-हेतु, मोक्ष और मोक्ष-हेतु-इन चारों को सम्यक् जान लिया और पुनः श्रामण्य में स्थिर हो गया। अब उसकी आत्मा इतनी जागृत हो चुकी थी कि उसने अपने पूर्वकृत मनोमालिन्य की शुद्धि के लिए भगवान् से प्रायश्चित्त की याचना की। वह जान गया कि प्रायश्चित्त की आग में जले बिना सोना कंचन नहीं होता। उसने प्रायश्चित्त लिया और वह भगवान् के शासन में पुनः सम्मिलित हो गया। इति आचार्यमहाप्रज्ञविरचिते संबोधिप्रकरणे . बंध-मोक्षवादनामा अष्टोऽध्यायः। ।
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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