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________________ प्रायोगिक दर्शन ५६१ तए णं से धणे सत्थवाहे अण्णया कयाई लहुसयंसि रायावराहंसि संपलित्ते जाए यावि 'होत्था । तए णं ते नगरगुत्तिया धणं सत्थवाहं गेण्हंति, गेण्हित्ता जेणेव चारए तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता चारगं अणुप्पवेसंति, अणुप्पवेसित्ता विजएणं तक्करेणं सद्धिं एगयओ हडिबंधणं करेंति । तए णं सा भद्दा भारिया कल्लं पाउप्पभाए रयणीए जाव उट्ठियम्मि सूरे सहस्सरस्सिम्मि दिणयरे तेयसा जलते विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं उवक्खडेइ, भोयणपडियं करे ....... एगं च सुरभि - वारिपडिपुण्णं दगवारयं करेइ, करेत्ता पंथयं दासचेडयं सद्दावेइ, सहावेत्ता एवं वयासी - गच्छह णं तुमं देवाप्पिया ! इमं विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं गहाय चारगसालाए धणस्स सत्थवाहस्स उवणेहि । तए णं से पंथए...... जेणेव धणे सत्थवाहे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता भोयणपिडयं ठवेइ, ठवेत्ता उल्लंछेइ, उल्लंछेत्ता भोयणं गेण्हइ, गेण्हित्ता भायणाई ठावइ, ठावित्ता हत्थसोयं दलयइ, दलइत्ता धणं सत्थवाहं तेणं विपुलेणं असण- पाण- खाइम साइमेणं परिवेसेइ । तणं से विजए तक्करे धणं सत्थवाहं एवं वयासीतुम्भे णं देवाणुप्पिया! ममं एयाओ विपुलाओ असण- पाण- खाइम- साइमाओ संविभागं करेहि। तए णं से धणे सत्थवाहे विजयं तक्करं एवं बयासी - अवियाई अहं विजया ! एयं विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं कायाण वा सुणगाण वा दलज्जा, उक्कुरुडियाए वा णं छड्डेज्जा नो चेव णं तव पुत्तघायगस्स पुत्तमारगस्स अरिस्स बेरियस्स पडणीयस्स पच्चामित्तस्स एत्तो विपुलाओ असण- पाण- खाइम - साइमाओ संविभागं करेज्जामि । तणं से धणं सत्थवाहे तं विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं आहारेइ, तं पंथयं पडिविसज्जेइ । तर णं तस्स धणस्स सत्थवाहस्स तं विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं आहारियस्स समाणस्स उच्चार पासवणे णं उव्वाहित्था । अ. १० : वीतराग साधना एक बार धन सार्थवाह किसी साधारण से राजकीय अपराध में फंस गया। नगर- आरक्षक सार्थवाह धन को कारागृह में ले गए। विजय- तस्कर के साथ ही उसका पैर खोड़े में डाल दिया। रात्रि व्यतीत हुई। पौ फटी । सूर्योदय हुआ । भद्रा सार्थवाही ने विपुल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य तैयार किया। भोजन पिटक तैयार किया। सुगंधित जल से एक झारी भरी। दास पंथक को बुलाया और कहा- देवानुप्रिय ! तू जा और यह भोजन पिटक कारागृह में सार्थवाह धन को दे आ। पंथक कारागृह में सार्थवाह धन के पास आया । भोजन पिटक रखा। उसे खोला और भोजन निकाला । भोजन पात्र रखे। सार्थवाह धन के हाथ धुलाए और भोजन परोसा | विजय तस्कर ने सार्थवाह धन से कहा- देवानुप्रिय ! मुझे भी भोजन का थोड़ा-सा हिस्सा दो । सार्थवाह धन ने विजय तस्कर से कहा- मैं यह भोजन चाहे कौवों और कुत्तों को दे दूं, कूड़े और कचरे में डाल दूं, किन्तु मेरे पुत्र के हत्यारे को इसका थोड़ा भी हिस्सा नहीं दूंगा। सार्थवाह धन ने भोजन किया और पंथक को विसर्जित कर दिया। विपुल भोजन के पश्चात् सार्थवाह को मल-मूत्र की बाधा उत्पन्न हुई।
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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