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________________ आत्मा का दर्शन ६५८ खण्ड-५ कर्म-मल का संचय करता है, जैसे शिशुनाग (अलस या केंचुआ) मुख और शरीर-दोनों से मिट्टी का। ५९.न तस्स दुक्खं विभयन्ति नाइओ, (संभूत मुनि ने ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती से कहा-) 'ज्ञाति, न मित्तवग्गा न सुया न बंधवा।। मित्र-वर्ग, पुत्र और बान्धव उसका दुःख नहीं बटा सकते। एक्को सयं पच्चणुहोइ दुक्खं, वह स्वयं अकेला दुःख का अनुभव करता है, क्योंकि कर्म कत्तारमेवं अणुजाइ कम्म॥ कर्ता का अनुगमन करता है। ६०.कम्मं चिणंति सवसा, तस्सुदयम्मि उ परवसा होति। रुक्खं दुरुहइ सवसो, विगलइ स परव्यसो तत्तो॥ जीव कर्मों का बन्ध करने में स्वतंत्र है, परन्तु उस कर्म का उदय होने पर भोगने में उसके अधीन हो जाता है। जैसे कोई पुरुष स्वेच्छा से वृक्ष पर तो चढ जाता है, किन्तु प्रमादवश नीचे गिरने में परवश हो. जाता है। ६१.कम्म-वसा खलु जीवा, जीव-वसाई कहिंचि कम्माई। कत्थइ धणिओ बलवं, धारणिओ कत्थई बलवं॥ कहीं जीव कर्म के अधीन होते हैं तो कहीं कर्म जीव के अधीन होते हैं। जैसे कहीं (ऋण देते समय) धनी बलवान् होता है तो कहीं (ऋण लौटाते समय) कर्जदार बलवान होता है। ६२. कम्मत्तणेण एक्कं, दव्वं भावो त्ति होदि दुविहं तु। पोग्गल-पिंडो दव्वं, तस्सत्ती भाव-कम्मं तु॥ सामान्य की अपेक्षा से कर्म एक है और द्रव्य तथा. भाव की अपेक्षा से दो है। कर्म-पुद्गलों का पिण्ड द्रव्य. कर्म है और उसमें रहने वाली शक्ति या उनके निमित्त से जीव में होने वाला राग-द्वेष रूप विकार भाव-कर्म है। ६३.जो इंदियादि-विजई, भवीय उवओगमप्पगं झादि। कम्मेहिं सो ण रंजदि, किह तं पाणा अणुचरंति॥ जो इन्द्रिय आदि पर विजय प्राप्त कर उपयोगमय (ज्ञान दर्शनमय) आत्मा का ध्यान करता है, वह कर्मों से नहीं बंधता। अतः प्राण उसका अनुसरण कैसे कर सकते हैं? उसे नया जन्म धारण नहीं करना पड़ता। ६४.नाणस्सावरणिज्ज, दंसणावरणं तहा। वेयणिज्जं तहा मोहं, आउ-कम्मं तहेव य॥ ६५.नाम-कम्मं च गोयं च, अंतरायं तहेव य। एवमेयाई कम्माई, अद्वैव उ समासओ॥ ज्ञानावरण कर्म, दर्शनावरण कर्म, वेदनीय कर्म, मोहनीय कर्म, आयु कर्म, नाम कर्म, गोत्र कर्म और अंतराय कर्म-संक्षेप में ये आठ कर्म हैं। ६६.पड-पडिहार-सि-मज्ज, हड-चित्त-कुलाल-भंडगारीणं। On EFag rum Hard For Vh natk ___ इन कर्मों का स्वभाव परदा, द्वारपाल, तलवार, मद्य, हलि, चित्रकार, कुम्भकार तथा भंडारी के स्वभाव की तरह है। १. स्पष्टीकरण :-१. जैसे परदा कमरे के भीतर की वस्तु का ज्ञान नहीं होने देता, वैसे ही ज्ञानावरण-कर्म ज्ञान को रोकने या अल्पाधिक करने में निमित्त है। इसके उवय की हीनाधिकता के कारण कोई विशिष्ट ज्ञानी और कोई
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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