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________________ समणसुत्तं . मिथ्यात्व सूत्र अ. १ : ज्योतिर्मुख मिथ्यात्व सूत्र हा! खेद है कि मति की मूढता के कारण सुगति का मार्ग न जानता हुआ जीव भयानक और घोर भव-वन में चिरकाल तक भ्रमण करता रहा है। ६७.हाजह मोहिय-मइणा,सग्गइ-मग्गं अजाणमाणेणं। भीमे भवकंतारे सचिरं भमियं भयकरम्मि॥ ६८.मिच्छत्तं वेदंतो जीवो, विवरीय-दंसणो होइ। ण य धम्मं रोचेदि हु, महुरं पि रसं जहा जरिदो॥ जो जीव मिथ्यात्व का वेदन करता है, उसकी दृष्टि विपरीत होती है। उसे धर्म भी रुचिकर नहीं लगता, जैसे ज्वर-ग्रस्त मनुष्य को मीठा रस भी अच्छा नहीं लगता। ६९.मिच्छत्त-परिणदप्पा,तिव्व-कसाएण सुछ आविट्ठो। जीवं देहं एक्कं, मण्णंतो होदि बहिरप्पा॥ मिथ्यादृष्टि जीव तीव्र कषाय से पूरी तरह आविष्ट होकर आत्मा और शरीर को एक मानता है, इसलिए वह बहिरात्मा है। ७०.जो जहवायं न कुणई, जो जैसे कहता है, वैसे आचरण नहीं करता, उससे मिच्छादिट्ठी तओ हु को अन्नो। बड़ा मिथ्यादृष्टि और दूसरा कौन हो सकता है? वह वड्ढइ य मिच्छत्तं, कथनी और करनी की विषमता के कारण दूसरों को .. - परस्स संकं जणेमाणो॥ शंकाशील बना कर मिथ्यात्व को बढाता रहता है। राग-परिहार सूत्र - राग-परिहार सूत्र ७१.रागो य दोसो वि य कम्म-बीयं, राग और द्वेष कर्म के बीज (मूल कारण) हैं। कर्म कम्मं च मोह-प्पभवं वयंति। मोह से उत्पन्न होता है, वह जन्म-मरण का मूल है और कम्मं च जाई-मरणस्स मूलं, - जन्म-मरण दुःख का मूल है। __ दुक्खं च जाई-मरणं वयंति॥ ७२.न वि तं कुणइ अमित्तो, अत्यंत तिरस्कृत समर्थ शत्रु भी उतनी हानि नहीं .. . सुट्ठ वि य विराहिओ समत्थो वि। पहुंचाता, जितनी हानि अनिगृहीत राग और द्वेष जं दो वि अनिग्गहिया, करंति रागो य दोसो य॥ पहुंचाते हैं। ७३.न य संसारम्मि सुहं, जाइ-जरा-मरण-दुक्ख-गहियस्स। जीवस्स अत्थि जम्हा, तम्हा मोक्खो उवादेओ॥ अल्पज्ञानी बनता है। २. जैसे द्वारपाल दर्शनार्थियों को राजदर्शन आदि से रोकता है, वैसे ही दर्शन का आवरण करने वाला दर्शनावरण कर्म है। ३. जैसे तलवार की धार पर लगा मधु चाटने से मधुर स्वाद अवश्य आता है, फिर भी जीभ के कट जाने का असह्य दुःख भी होता है, वैसे ही वेदनीय कर्म सुख-दुःख का निमित्त है। ४. जैसे मद्यपान से मनुष्य मदहोश हो जाता है-सुध-बुध खो बैठता है, वैसे ही मोहनीय कर्म के उदय से विवश जीव अपने स्वरूप को भूल जाता है। ५. जैसे हलि काठ-बंध (खोडा) में पांव फंसा देने पर मनुष्य रुका रह जाता है। इस संसार में जन्म, जरा और मरण के दुःख से ग्रस्त जीव को कोई सख नहीं है। अतः मोक्ष ही उपादेय है। वैसे ही आयु-कर्म के उदय से जीव शरीर में निश्चित समय तक रुका रहता है। ६. जैसे चित्रकार नाना प्रकार के चित्र बनाता है, वैसे ही नाम कर्म के उदय से जीवों के नानाविध देहों की रचना होती है। ७. जैसे कुंभकार छोटे बडे बर्तन बनाता है, वैसे ही गोत्र कर्म के उदय से जीव को उच्चता या नीचता मिलती है। ८. जैसे भंडारी (खजांची) दाता को देने से और याचक को लेने से रोकता है, वैसे ही अंतराय-कर्म के उदय से दान-लाभ आदि में बाधा पडती है। इस तरह ये आठों कर्मों के स्वभाव हैं।
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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