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आत्मा का दर्शन
७४. तं जइ इच्छसि गंतुं, तीरं भव सायरस्स घोरस्स । तो तव - संजम - भंड, सुविहिय! गिण्हाहि तूरंतो ॥
७५. बहु-भयकर-दोसाणं,
न हुवसमागतव्वं,
सम्मत्त चरित-गुण-विणासाणं ।
रागद्दोसाण पावाणं ॥
७६. कामाणुगिद्धिप्पभवं खु दुक्खं,
सव्वस्स लोगस्स सदेवगस्स । काइयं माणसियं च किंचि,
तस्संतगं गच्छइ वीयरागी ॥
७७. जेण विरागो जायइ, तं तं सव्वायरेण करणिज्जं । मुच्चइ हु ससंवेगी, अणंतओ होइ असंवेगी ॥
७८.एवं संकप्प-विकप्पणासुं,
संजायई समयमुवट्ठियस्स । अत्थे य संकम्पयओ तओ से,
पीय काम-गुणेसु तहा ॥
७९. अन्नं इमं सरीरं, अन्नो जीवु त्ति निच्छियमईओ । दुक्ख - परिकिलेसकरं, छिंद ममत्तं सरीराओ ॥
८०. कम्मासव - दाराई, निरुंभियव्वाइं इंदियाई च । हंतव्वा य कसाया, तिविहं - तिविहेण मोक्खत्थं ॥
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८१. भावे विरत्तो मणुओ विसोगो,
एएण दुक्खोह - परंपरेण ।
न लिप्पई भव- मज्झे वि संतो,
जलेण वा पोक्खरिणी - पलासं ॥
खण्ड - ५
हे सुविहित ! यदि तू घोर भवसागर के पार जाना तो शीघ्र ही तप-संयत रूपी नौका को ग्रहण
चाहता कर ।
राग और द्वेष-ये दोनों सम्यक्त्व, चारित्र आदि गुणों के विनाश करने वाले तथा भय हेतु हैं, अतः इनके वशवर्ती नहीं होना चाहिए।
सब जीवों के और क्या देवताओं के भी जो कुछ कायिक और मानसिक दुःख है, वह काम भोगों की सतत अभिलाषा से उत्पन्न होता है। वीतराग उस दुःख का अन्त पा जाता है।.
जिससे विराग उत्पन्न होता है, उसका पूर्ण आदर भाव से आचरण करना चाहिए। विरक्त व्यक्ति दुःख परंपरा से मुक्त हो जाता है और आसक्त व्यक्ति की दुःख- परम्परा अनन्त होती है।
इस प्रकार जो समता को प्राप्त हो जाता है, उसके संकल्प और विकल्प नष्ट हो जाते हैं। जो अर्थों - इन्द्रियविषयों का संकल्प नहीं करता, उसके कामगुणों में होने वाली तृष्णा प्रक्षीण हो जाती हैं।
निश्चय दृष्टि के अनुसार शरीर भिन्न है और आत्मा भिन्न है। आत्मा और शरीर की एकत्व - बुद्धि से दुःख और क्लेश उत्पन्न होता है। अतः दुःख और क्लेश उत्पन्न करने वाले शरीर के ममत्व को छिन्न कर डाल ।
मोक्ष की प्राप्ति के लिए कर्म के आस्रव और इन्द्रियों का मनसा, वाचा, कर्मणा (त्रिकरण) और कृत, कारित, अनुमोदन (त्रियोग) पूर्वक निरोध और कषायों का अंत करना चाहिए।
भाव में विरक्त मनुष्य शोक-मुक्त बन जाता है। जैसे कमलिनी का पत्र जल में लिप्त नहीं होता, वैसे ही वह इस संसार में रह कर भी अनेक दुःखों की परंपरा से लिप्त नहीं होता।