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________________ समणसुत्तं ६५७ अ. १ : ज्योतिर्मुख ५०.भोगामिस-दोस-विसन्ने, (कपिल मुनि ने चोरों से कहा-) 'आत्मा को दूषित हियनिस्सेयसबुद्धि-वोच्चत्थे। करने वाले भोगामिष (आसक्ति-जनक भोग) में निमग्न, “बाले य मन्दिए मूढे, हित और श्रेयस् में विपरीत बुद्धिवाला, अज्ञानी, मंद और बज्झई मच्छिया व खेलम्मि॥ मूढ जीव उसी तरह (कर्मो से) बंध जाता है, जैसे श्लेष्म में मक्खी । ५१.जाणिज्जइ चिन्तिज्जइ, जम्म-जरा-मरण-संभवं दुक्खं। न य विसएसु विरज्जई, ___ अहो सुबद्धो कवड-गंठो॥ मनुष्य जन्म, जरा और मरण से होने वाले दुःख को जानता है, उसका चिंतन भी करता है, किन्तु विषयों से विरक्त नहीं हो पाता। अहो! माया की गांठ कितनी सुदृढ होती है। ५२.जो खलु संसारत्थो, ___ • जीवो तत्तो दु होदि परिणामो। परिणामादो कम्म, कम्मादो होदि गदिसु गदी॥ संसारी जीव के (राग-द्वेष रूप) परिणाम होते हैं। राग-द्वेषात्मक परिणामों से कर्म-बंध होता है। कर्म-बंध के कारण जीव चार गतियों में गमन करता है जन्म लेता है। ५३.गदिमधिगदस्स देहो, देहादो इंदियाणि जायंते। तेहिं दु विसयग्गहणं, तत्तो रागो वा दोसो वा॥ जन्म से शरीर और शरीर से इन्द्रियां प्राप्त होती हैं। उनसे जीव विषयों का ग्रहण करता है। उनसे फिर रागद्वेष पैदा होता है। ५४.जयदि जीवस्सेवं, भावो संसार-चक्कवालम्मि। इदि जिणवरेहिं भणिदो, - अणादिनिधणो सणिधणो वा॥ इस प्रकार जीव संसार-चक्र में परिभ्रमण करता है। उसके परिभ्रमण का हेतुभूत परिणाम (सम्यग्दृष्टि उपलब्ध न होने पर) अनादि-अनन्त और (सम्यग्दृष्टि के उपलब्ध होने पर) अनादि-सान्त होता है। ५५.जम्मं दुक्खं जरा दुक्खं, रोगा य मरणाणि य। अहो दुक्खो हु संसारो, जत्थ कीसन्ति जंतवो॥ जन्म, बुढापा, रोग और मरण दुःख है। अहो! संसार दुःख ही है, जिसमें जीव क्लेश पा रहे हैं। कर्म सूत्र कर्म सूत्र ५६.जो जेण पगारेणं, भावो णियहो तमन्नहा जो तु। मन्नति करेति वदति व, विप्परियासो भवे एसो॥ जो भाव जिस प्रकार से नियत है, उसे अन्य रूप से मानना, कहना या करना विपर्यास-विपरीतबुद्धि है। ५७.जं जं समयं जीवो, आविसइ जेण जेण भावेण। सो तंमि तंमि समए, सुहासुहं बंधए कम्म॥ जिस समय जीव जैसे भाव करता है, उस समय वह वैसे ही शुभ-अशुभ कर्मों का बंध करता है। १८.कायसा वयसा मत्ते, वित्ते गिद्धे च इत्थिसु। . दुहओ मलं संचिणइ, सिसुणागु व्व मटियं॥ जो शरीर और वाणी से मत्त होता है, धन और स्त्रियों में गृद्ध होता है, वह राग और द्वेष-दोनों से उसी प्रकार
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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