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संबोधि
अ. १३ : साध्य-साधन-संज्ञान
मेघः प्राह ३२. केनोपायेन देवेदं, मनःस्थैर्य समश्नुते?
स्वीकृतस्याध्वनो येनाऽप्रच्यवः सिद्धिमाप्नुयात्॥
मेघ बोला-देव! किस उपाय से मन की स्थिरता प्राप्त हो सकती है, जिससे स्वीकृत-मार्ग पर आरूढ रहने का मार्ग सिद्ध हो जाए।
भगवान् प्राह ३३.मनः साहसिको भीमो, दृष्टोऽश्वः परिधावति।
सम्यग् निगृह्यते येन, स जनो नैव नश्यति॥
भगवान् ने कहा-मन दुष्ट घोड़ा है। वह साहसिक और भयंकर है। वह दौड़ रहा है। उसे जो भली-भांति अपने अधीन करता है, वह मनुष्य नष्ट नहीं होता- सन्मार्ग से च्युत नहीं होता।
३४.उन्मार्गे प्रस्थिता ये च, ये च गच्छन्ति मार्गतः।
सर्वे ते विदिता. यस्य, स जनो नैव नश्यति॥
जो उन्मार्ग में चलते हैं और जो मार्ग में चलते हैं, वे सब जिसे ज्ञात हैं, वह मनुष्य नष्ट नहीं होता-सन्मार्ग से च्युत नहीं होता।
३५.आत्मायमजितः शत्रुः, कषायाः इन्द्रियाणि च। जित्वा तान् विहरेन्नित्यं, स जनो नैव नश्यति॥
कषाय और इन्द्रियां शत्रु हैं। वह आत्मा भी शत्रु है, जो इनके द्वारा पराजित है। जो उन्हें जीतकर विहार करता है, वह मनुष्य नष्ट नहीं होता-सन्मार्ग से च्युत नहीं होता।
३६.रागद्वेषादयस्तीवाः, स्नेहाः पाशा भयंकराः।
ताञ्छित्वा विहरेन्नित्यं, स जनो नैव नश्यति॥
प्रगाढ़ राग-द्वेष और स्नेह-ये भयंकर पाश हैं, जो इन्हें छिन्न कर विहार करता है, वह मनुष्य नष्ट नहीं होता-सन्मार्ग से च्युत नहीं होता।
३७.अन्तोहृदयसम्भूता, भवतृष्णा लता भवेत्। . विहरेत्तां समुच्छित्य, स जनो नैव नश्यति॥
यह भव-तृष्णा रूपी लता हृदय के भीतर उत्पन्न होती है। उसे उखाड़कर जो विहार करता है, वह मनुष्य नष्ट नहीं होता-सन्मार्ग से च्युत नहीं होता।
१८. कषाया अग्नयः प्रोक्ताः , श्रुत-शील-तपोजलम्। '.एतद्धाराहता यस्य, स जनो नैव नश्यति॥
कषायों को अग्नि कहा गया है। श्रुत, शील और तप-यह जल है। जिसने इस जलधारा से कषायाग्नि को आहत कर डाला-बुझा डाला, वह मनुष्य नष्ट नहीं होता-सन्मार्ग से च्युत नहीं होता।
॥ व्याख्या ॥ इन श्लोकों में कुमारश्रमण केशी और गणधर गौतम के प्रश्न और उत्तर हैं।
कुमारश्रमण केशी भगवान् पार्श्वनाथ की परंपरा के चौथे पट्टधर थे। एक बार वे ग्रामानुग्राम विहार करते हुए श्रावस्ती में आए और 'तिन्दुक' उद्यान में ठहरे। भगवान् महावीर के शिष्य गणधर गौतम भी संयोगवश उसी नगर में आए और 'कोष्टक' उद्यान में ठहरे। दोनों के शिष्यों ने एक-दूसरे को देखा। बाह्य वेशभूषा, व्यवहार आदि की भिन्नता के कारण उनमें ऊहापोह होने लगा। दोनों आचार्यों ने यह सुना। वे शिष्यों की शंकाओं का निराकरण करना चाहते थे, अतः वे एक स्थान पर मिले। आपस में संवाद हुआ। प्रश्नोत्तर चले।