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संबोधि
अ. १५ : गृहिधर्मचर्या
॥ व्याख्या ॥ • विज्ञान और धर्म में कोई दूरी है तो यह है कि विज्ञान जितना दृश्य को स्वीकार करता है, उतना अदृश्य को नहीं। विज्ञान की दृष्टि है कि जिसका माप हो वही तत्त्व है। धर्म कहता हैं-अमाप्य भी तत्त्व है। आप सब कुछ माप सकते हैं। किन्तु आत्मा या अमूर्त को नहीं। दृश्य ही सब कुछ नहीं है। यह स्वयं निष्चेष्ट-निष्क्रिय है, यदि उसके पीछे अदृश्य का हाथ न हो तो। दृश्य महान् नहीं है। महान् है-अदृश्य, जिसकी सत्ता सर्वत्र काम कर रही है। पांच फुट के इस छोटे शरीर में जो स्वचालित प्रक्रिया हो रही है, यह क्या उस अदृश्य की सूचना नहीं दे रही है ? वैज्ञानिक कहते हैं-'यदि इस शरीर का निर्माण हमें करना पड़े तो कम से कम दस वर्गमील में एक कारखाना बनाना पड़े।' दृश्य शरीर की चेष्टा से अदृश्य का बोध होता है। उसे नकारा नहीं जाता। आज वैज्ञानिक भी उसके निकट पहुंच रहे हैं और उसकी सत्ता को स्वीकार कर रहे हैं। बहुतों ने अपनी खोज के संबंध में कहा है-इस तथ्य का पता हमें किसी अज्ञात जगत से मिला है। शरीर के सो जाने पर भी चेतना नहीं सोती। .
३७.स्पर्शाः रूपाणि गन्धाश्च, रसा येन जिहासिताः।
आत्मा तेनैव लब्धोऽस्ति,स भवेदात्मविद् पुमान्॥
जिसने स्पर्श, रूप, गंध और रसों की आसक्ति को छोड़ना चाहा, आत्मा उसी को प्राप्त हुआ है और वही आत्मवित् है।
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॥ व्याख्या ॥ आत्मा का अनुभव इन्द्रिय-विषयों से परे हटने पर होता है। जब तक इन्द्रिय और मन की हलचल होती रहती है तब तक आत्मा सुप्त रहती है। जब आत्मा जागती है तब वे सो जाते हैं। गीता में लिखा है-'इन्द्रियों के विषय उस शरीरधारिणी आत्मा से विमुख हो जाते हैं, जो उसका आनंद लेने से दूर रहती है। परंतु उनके प्रति रस (लालसा) फिर भी बनी रहती है। जब भगवान् (आत्मा) के दर्शन हो जाते हैं तब वह रस भी जाता रहता है।' ___ फारसी धर्म में भी दो प्रकार की बुद्धि का उल्लेख है-प्राकृतिक बुद्धि और शिक्षा के द्वारा होने वाली बुद्धि। प्राकृतिक बुद्धि आत्मा के निकट की बुद्धि है। वह प्रत्येक गलत चरण को रोकने के लिए संकेत देती है। इसके ढंक जाने पर मनुष्य बाहर की दुनिया में चला जाता है। आत्मविद् वह है जो आत्म-जगत् के आनंद का अनुभव करता है। ३८.श्रुतवन्तो भवन्त्येके, शीलवन्तोऽपर जनाः। पुरुष चार प्रकार के होते हैं- १. श्रुतसंपन्न-ज्ञानवान् श्रुतशीलयुता एके, एके द्वाभ्यां विवर्जिताः॥ २. शीलसंपन्न ३. श्रुतसंपन्न और शीलसंपन्न ४. न श्रुतसंपन्न और
न शीलसंपन्न। ३९.श्रुतवान् मोक्षमार्गस्य, देशेन स्याद् विराधकः। जो पुरुष केवल श्रुतसंपन्न होता है, वह मोक्ष-मार्ग का देश शीलवान् मोक्षमार्गस्य, देशेनाराधको भवेत्॥ विराधक-आंशिक रूप से विराधक होता है। जो पुरुष केवल
शीलसंपन्न होता है, वह मोक्ष-मार्ग का देश आराधक-आंशिक
रूप से आराधक होता है।
॥ व्याख्या ॥ जैन दर्शन ज्ञान और क्रिया-दोनों से मोक्ष मानता है। जो एकांतवादी दर्शन हैं वे केवल ज्ञान या केवल क्रिया से मोक्ष मानते हैं। यह अयथार्थ है। जहां श्रुत और आचार का समन्वय है, वहीं लक्ष्य की प्राप्ति होती है। केवल ज्ञान व्यक्ति को मूढ़ बनाता है और ज्ञानशून्य क्रिया निराधार होती है। इसलिए ज्ञान से समन्वित क्रिया और क्रिया से समन्वित ज्ञान ही लक्ष्य-साधक होता है। ४०.इदं दर्शनमापन्नो, मुच्यते नेति संगतम्। कुछ लोगों का अभिमत है कि अमुक दर्शन को स्वीकार श्रुतशील-समापन्नो, मुच्यते नात्र संशयः॥ करने से व्यक्ति मुक्त हो जाता है किन्तु यह संगत नहीं है। सचाई
यह है कि जो श्रुत और शील से युक्त होता है, वह निःसंदेह मुक्त हो जाता है।