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________________ प्रायोगिक दर्शन ५५१ अ. ९ : धर्म माहण-अतिहि-किवण-वणीमगा नावकंखंति। फेंकने योग्य है, वह लूंगा, जो फेंकने योग्य नहीं है, उसे नहीं लूंगा। उसमें भी वह आहार लूंगा, जिसे बहुत से श्रमण, माहण, अतिथि, कपण, वनीपक लेना नहीं चाहते। अहासुहं देवाणुप्पिया! मा पडिबंधं करेहि। ___ मैने कहा-देवानुप्रिय! स्वतंत्रतापूर्वक जैसा चाहो, वैसा करो। तए णं से धण्णे अणगारे.....तहारूवाणं थेराणं धन्य अणगार ने तथारूप स्थविरों के पास आचारांग अंतिए सामाइयमाइयाइं एक्कारस अंगाइं आदि ग्यारह अंगों का अध्ययन किया। संयम और तप से अहिज्जइ, अहिन्जित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं अपने आपको भावित करता हुआ रहने लगा। भावेमाणे विहरइ। तए णं से सेणिए राया समणस्स भगवओ महा- राजा श्रेणिक श्रमण भगवान महावीर से धन्य वीरस्स अंतिए एयमढं सोच्चा निसम्म हट्ठतुठे अनगार की तपस्या का विवरण सुनकर-समझकर प्रसन्न • समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिण- हुआ। श्रमण भगवान महावीर को तीन बार प्रदक्षिणा की। पयाहिणं करेइ, करेत्ता वंदइ-नमंसइ, वंदित्ता- वन्दन-नमस्कार किया। वन्दन-नमस्कार कर धन्य नमंसित्ता जेणेव धण्णे अणगारे तेणेव उवागच्छइ, अनगार के पास आया। तीन बार प्रदक्षिणा की। वन्दनउवागच्छित्ता धण्णं अणगारं तिक्खत्तो आयाहिण- नमस्कार किया। वन्दन-नमस्कार कर बोला-देवानुप्रिय! पयाहिणं करेइ, करेत्ता वंदइ-नमसइ, वंदित्ता- तुम धन्य हो। देवानुप्रिय! तुम पुण्यशाली हो। देवानुप्रिय! नमसित्ता एवं वयासी-धण्णेसि णं तुमं तुम कृतार्थ हो। देवानुप्रिय! तुम कृतलक्षण हो। देवानुप्रिय! : देवाणुप्पिया! सुपुण्णे सि णं तुमं देवाणुप्पिया! तुमने मनुष्य जन्म का फल प्राप्त कर लिया है। ऐसा कह सुकयत्ये सि णं तुमं देवाणुंप्पिया! कयलक्खणे सि वन्दन-नमस्कार किया। वन्दन-नमस्कार कर श्रमण णं तुम देवाणुप्पिया! सुलद्धे णं देवाणुप्पिया! तव भगवान महावीर के पास आया। तीन बार प्रदक्षिणा की। . माणुस्सए जम्मजीवियफले ति कटु वंदइ-नमसइ, वन्दन-नमस्कार किया और जिस दिशा से आया था, वंदित्ता-नमंसित्ता जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उसी दिशा में चला गया। उवागच्छइ, उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीर तिक्खुत्तो आयाहिण-पयाहिणं करेइ, करेत्ता वंदइनमंसइ, वंदित्ता-नमंसित्ता जामेव दिसं पाउब्भूए तामेव दिसं पडिगए। तपस्या की अर्हता ६४.बलं थामं च पेहाए सद्धामारोग्गमप्पणो। अपने बल, पराक्रम, श्रद्धा और आरोग्य को देखकर, · खेत्तो कालं च विन्नाय तहप्पाणं निजुंजए॥ क्षेत्र व काल को जानकर अपनी शक्ति के अनुसार आत्मा को तप आदि में नियोजित करे। ६५.सो हु सवो कायव्वो जेण मणो मंगुलं न चिंतेइ। वही तप करना चाहिए जिससे मन में अमंगल का जेण न इंदियहाणी जेण य जोगा ण हायंति॥ भाव पैदा न हो, इन्द्रियों की शक्ति क्षीण न हो और योग-मन, वचन एवं काया की शक्ति नष्ट न हो। ६६.सुहेणं भाविदं गाणं दुहे जादे विणस्सदि। • तम्हा जहाबलं जोई, अप्पा दुक्खेहि भावए। सुख से भावित ज्ञान दुःख आने पर नष्ट हो जाता है। अतः योगी को शक्ति के अनुसार अपनी आत्मा को कष्टों से भावित करना चाहिए।
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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