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खण्ड-४
आत्मा का दर्शन ६७.ण दुक्खं ण सुखं वा वि,
जहाहेतु तिगिच्छिति।
रोग की चिकित्सा का लक्ष्य है-रोग का प्रतिकार। दुःख और सुख उसका लक्ष्य नहीं है। चिकित्सा में प्रवृत्त व्यक्ति को दुःख भी हो सकता है और सुख भी हो सकता है।
तिगिच्छिए सुजुत्तस्स,
दुक्खं वा जइ वा सुहं॥
६८.मोहक्खए उ जुत्तस्स,
दुक्खं वा जइ वा सुहं।
मोहक्खए जहाहेउ,
मोह की चिकित्सा का लक्ष्य है-मोह का प्रतिकार। दुःख और सुख उसका लक्ष्य नहीं है। मोह क्षय में प्रवृत्त होने पर साधक को दुःख भी हो सकता है और सुख भी हो सकता है। मोह क्षय साधना का अंग होने से वह अनिष्टकारी नहीं होता है।
न दुक्खं न वि वा सुहं॥
मोक्ष का बाधक तत्त्व-आश्रव
६९.पंच आसवदारा पण्णत्ता, तं जहा
१.मिच्छत्तं २. अविरती ३. पमादो
४. कसाया ५.जोगा।
आश्रव के पांच प्रकार प्रज्ञप्त हैं
१. मिथ्यात्व २. अविरति . ३. प्रमाद
४. कषाय ५. योग।
मोक्ष का बाधक तत्त्व-बंध ७०.रत्तो बंधदि कम्मं मुच्चदि कम्मेहिं रागरहिदप्पा। रागयुक्त आत्मा ही कर्मबंध करती है। राग रहित एसो बंधसमासो जीवाणं जाण णिच्छयदो॥ आत्मा कर्मों से मुक्त होती है। यह निश्चय से संक्षेप में
जीवों के बंध का कथन है।
मोक्ष के बाधक तत्त्व-पुण्य-पाप
७१.कम्मं पुण्णं पावं
मंदकसाया सच्छा
कर्म के दो प्रकार हैं-पुण्यरूप और पापरूप। पुण्यकर्म हेऊं तेसिं व होति सच्छिदरा।। के बंध का हेतु स्वच्छ या शुभभाव है और पापकर्म के
बंध का हेतु अस्वच्छ या अशुभ भाव है। मंद कषायी जीव तिव्वकसाया असच्छा हु॥ स्वच्छभाव वाले होते हैं तथा तीव्रकषायी जीव अस्वच्छ
भाव वाले होते हैं।
अप्रमाद के सूत्र
७२.जा जा वच्चइ रयणी न सा पडिनियत्तई।
अहम्मं कुणमाणस्स अफला जंति राइओ॥
जो-जो रात बीत रही है, वह लौटकर नहीं आती। अधर्म करने वाले की रात्रियां निष्फल चली जाती हैं।
७३.जा जा वच्चइ रयणी न सा पडिनियत्तई।
धम्मं च कुणमाणस्स सफला जंति राइओ॥
जो-जो रात बीत रही है, वह लौटकर नहीं आती। धर्म करने वाले की रात्रियां सफल होती हैं।