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________________ खण्ड-४ आत्मा का दर्शन ६१.चउव्विहा खलु तवसमाही भवइ तं जहा १. नो इहलोगट्ठयाए तवमहिढेज्जा। २. नो परलोगट्ठयाए तवमहिलॅज्जा। तप समाधि के चार प्रकार प्रज्ञप्त हैं१. वर्तमान जीवन की भोगाभिलाषा के निमित्त तप नहीं करना चाहिए। २. पारलौकिक भोगाभिलाषा के निमित्त तप नहीं करना चाहिए। ३. कीर्ति, वर्ण, शब्द और श्लोक के लिए तप नहीं करना चाहिए। ४. निर्जरा के अतिरिक्त अन्य किसी भी उद्देश्य से तप नहीं करना चाहिए। ३. नो कित्तिवण्णसद्दसिलोगट्ठयाए तव महिढेज्जा। ४. नन्नत्थ निज्जरट्ठयाए तवमहिछेज्जा। ६२.विविहगुणतवोरए य निच्चं भवइ निरासए निज्जरट्ठिए। तवसा धुणइ पुराणपावगं जुत्तो सया तवसमाहिए। सदा विविध गुणवाले तप में रत रहने वाला मुनि पौद्गलिक प्रतिफल की इच्छा से रहित होता है। वह केवल निर्जरा का अर्थी होता है। वह तप के द्वारा पुराने कर्मों का विनाश करता है और सदा तप समाधि में युक्त रहता है। राजगृह नगर। गुणसिलक चैत्य। श्रेणिक राजा। भगवान महावीर का आगमन। श्रेणिक ने भगवान महावीर से धर्म सुना। उसके मन में एक जिज्ञासा उत्पन्न हुई। उसने महावीर को वन्दननमस्कार कर पूछा-भंते! आपके इन्द्रभूति आदि १४ हजार शिष्यों में महादुष्कर तप और महान् निर्जरा करने वाला मुनि कौन है? महान् तपस्वी धन्य अनगार ६३.तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नयरे गुणसिलए चेइए। सेणिए राया।......समणे भगवं महावीरे समोसढे।....... तए णं से सेणिए राया समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए धम्म सोच्चा निसम्म समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी-इमासि णं भंते! इंदभइपामोक्खाणं चोइसण्हं समणसाहस्सीणं कतरे अणगारे महादुक्करकारए चेव महाणिज्जरतराए चेव। एवं खलु सेणिया! इमासि णं इंदभूइपामोक्खाणं चोइसण्हं समणसाहस्सीणं धण्णे अणगारे महादुक्करकारए चेव महाणिज्जरतराए चेव। से केणठेणं भंते!...... इच्छामि णं भंते! तुब्भेहिं अब्भणुण्णाए समाणे जावज्जीवाए छठंछठेणं अणिक्खित्तेणं आयंबिल-परिग्गहिएणं तवोकम्मेणं अप्पाणं भावेमाणे विहरित्तए। छट्ठस्स वि य णं पारणयंसि कप्पइ मे आयंबिलं पडिगाहेत्तए, नो चेव णं अणायंबिलं। तं पि य संसठं, नो चेव णं असंसठं। तं पि य णं उज्झियधम्मियं, नो चेव णं अणुज्झियधम्मियं। तं पि य जं अण्णे बहवे समण- श्रेणिक! मेरे इन्द्रभूति प्रमुख १४ हजार शिष्यों में मुनि धन्यकुमार महादुष्कर तप करनेवाला और महान् निर्जरार्थी है। यह कैसे? तब भगवान ने धन्य अणगार का जीवन वृत्त बताया। धन्य अणगार दीक्षित होकर मेरे पास आकर बोलाभंते! मैं आपकी आज्ञा प्राप्त कर आजीवन निरन्तर आयंबिल युक्त बेला (दो दिन का उपवास) की तपस्या स्वीकार करता हूं। मैं इस तपस्या से अपने आपको भावित करता रहूंगा। पारणा के दिन आचाम्ल योग्य आहार लूंगा। उसके विपरीत आहार नहीं लूंगा। मैं संसृष्ट आहार लूंगा। असंसृष्ट आहार नहीं लूंगा। वह भी जो
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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